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अध्ययन ३ : टिप्पण ७२-७८
सूयगडो १ ७२. कंदमूल... कच्चा जल (बीओदगं) यहां 'बीज' से कन्दमूल का तथा 'उदग' से कच्चे जल का ग्रहण किया है।'
श्लोक ५२ :
७३. तीव्र कषाय से (तिव्वाभितावेण)
चणिकार ने 'अभिताव' का अर्थ अमर्ष-दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला क्रोध, मानरूपी कषाय का उदय किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल कर्म-बंध किया है। चूर्णिकार का अर्थ तर्क-संगत लगता है। ७४. (विवेक) शून्य (उज्झिय)
इसका अर्थ है-विवेक-शून्य । अन्यतीथिक विवेकशून्य हैं क्योंकि भिक्षापात्र न रखने के कारण उन्हें गहस्थों के घर गृहस्थों के पात्रों में खाना पड़ता है और वहां अपने निमित्त बनाए भोजन का स्वीकरण होता है।' ७५. असमाहित (असमाहिया) चूणिकार ने इसका अर्थ-आतुरीभूत और वृत्तिकार' ने शुभ अध्यवसाय से रहित किया है।
श्लोक ५३ : ७६. अप्रतिज्ञ (विषय के संकल्प से अतीत) (अपडिण्णेण)
चूणिकार ने इसका अर्थ-विषय और कषाय से निवृत्त किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-राग-द्वेष से अतीत किया है । 'मुझे असत् का भी समर्थन करना चाहिए'—जिसके ऐसी प्रतिज्ञा नहीं होती वह अप्रतिज्ञ है।' ७७. युक्तिसंगत (णियए) चर्णिकार ने इसका अर्थ नित्य-अव्याहत किया है। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं—निश्चित और युक्तिसंगत ।"
श्लोक ५४ ७८. बांस की फुनगी की तरह (अग्गे वेणुव्व)
मुनि ग्लान मुनि को आहार लाकर न दे—यह आपकी सिद्धान्त वाणी वंश के अग्रभाग की भांति बहुत कृश है। वह युक्ति को झेलने में सक्षम नहीं है। इस व्याख्या का आधार वृत्ति है।" चूर्णिकार ने मूल पाठ 'अग्गि बेल्लव्व करिसिता' माना है। उसका अर्थ किया है-बिल्ब मूल में स्थूल और अग्रभाग में कृश होता है। वैसे ही आपकी वाणी अग्रभाग में कृश होने के कारण निश्चय १. चूणि, पृ० ६१ : बीओदगं...... 'कंदमूलाणि ताव सयं भुंजध, सीतोवर्ग पिबध । २. चणि, पृ० ६१: तिव्वामितावो णाम तीवोऽमर्षः : सणमोहणिज्जकम्मोदएणं कोध-माण-कसायोदएण य लित्ता। ३. वृत्ति, पत्र ६२ : तीवोऽभितापःकर्मबंधरूपः । ४. वत्ति, पत्र १२ : उझिय त्ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्परगृहभोजितयोद्देशकादिभोजित्वात् : ५. चूर्णि, पृ. ६१ : असमाहिता आतुरीभूता। ६. वृत्ति, पत्र ६३ : असमाहिताः शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेषित्वात् । ७. चूणि, पृ० १२ : अपडिण्णेणं ति विसय-कसायणियत्तेण । ८. वृत्ति, प्रत्र ६३ : अप्रतिज्ञेन नास्य मयेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञो-रागदेषरहितः । ६. चूणि, पृ० ६२ : णितिओ णाम णाम नित्यः अव्याहतः एषः । १०. वृत्ति, पत्र ६३ : नियतो, " निश्चितो 'युक्तिसङ्गतः। ११. वृत्ति, पत्र ६३ : यतिना ग्लानस्थानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद्-वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः ।
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