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सूयगडो १
ने 'रूपक' किया है।'
७०. द्विपक्ष (प)
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चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-- सांपरायिक कर्म तथा गृहस्यत्व
वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैं- 'दुष्पक्ष:' और 'द्विपक्ष:' और उनके भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं । असत् प्रतिज्ञा का स्वीकरण होने के कारण आप दुष्पक्ष हैं तथा दो पक्षों-राग और द्वेष का सेवन करने के कारण द्विपक्ष हैं। अपने सदोष सिद्धान्त का समर्थन करने के कारण आपमें राग और हमारे निर्दोष अभ्युपगम को दूषित करने के कारण आपमें द्वेष का सद्भाव है ।
'
अथवा संन्यास और गृहस्थ- इन दोनों पक्षों का सेवन करने के कारण आप द्विपक्षसेवी हैं । कन्द-मूल, दण्डित भोजन, कच्चा जल आदि लेने के कारण आप गृहस्थ पक्ष का सेवन करते हैं और साधुवेष को धारण करने के कारण आप संन्यासपक्ष का सेवन करते हैं ।
अथवा आप स्वयं असद्-अनुष्ठान करते हैं और दूसरे के सद-अनुष्ठान की निन्दा करते हैं - इस प्रकार द्विपक्षसेवी हैं ।' हमने द्विपक्ष से संन्यास और गृहस्थ का ग्रहण किया है।
श्लोक ५१ :
७१. धातुपात्रों में ( पाए)
हमने इसका अर्थ - धातुपात्र किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कांसी का पात्र किया है। चूर्णिकार का कथन है कि आजीवक श्रमण गृहस्थ के कांसी के पात्रों में भोजन करते हैं । "
चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ-विस्तार किया है। जैन श्रमण अन्यतीर्थिकों को कहते हैं - आप जिन भिक्षा पात्रों में भिक्षा लेते हैं, उनके प्रति आसक्त होते हैं । आहार, उपकरण और स्वाध्याय, ध्यान में मूर्च्छा करते हैं । जो रुग्ण संन्यासी भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ होता है, उसके लिए भक्त उपासकों द्वारा, कुलक या दूसरे पात्रों में लाया हुआ भोजन आप स्वीकार करते हैं। इस प्रकार आप दूसरों के पात्र का उपभोग करते हैं। इससे बंध होता है । जो व्यक्ति भोजन लाता है, मार्ग में उससे जीववध भी होता है । वह आपके लिए भोजन लाता है। वह आपका उपासक होते हुए भी कर्मबंध से लिप्त होता है। यदि पात्र रखना दोष है तो पाणिपात्र होना भी दोषप्रद है । वह आपको भोजन देता हुआ क्या सत्पथ का अनुगामी है या उत्पथ का ? आप सब मृग की भांति अज्ञानी हैं। जैसे मृग शंकास्पद स्थानों के प्रति निःशंक और निःशंक स्थानों के प्रति शंकाशील होता है, वैसे ही आप हैं।
१. वृत्ति, पत्र ६२ : विशारदो मोक्ष मार्गस्य - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य प्ररूपकः ।
२. चूर्ण, पृ० ९१: दुपक्खो णाम संपराइयं कम्मं भण्णति गृहस्थत्वं वा ।
३. बुति
४ वृत्ति पत्र १२ ५. चूर्णि, पृ० ६१ ६. पूर्ण, पृ० ११
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अध्ययन ३ : टिप्पण ७०-७१
१२ः पतिस्तमेव सेव पूपं यदिवा रागद्वेषात्मक पक्ष सेवा पूयं तथाहिसदोषस्याप्यात्मीयपक्षस्य समर्थनाद्रागो, निकस्याप्यस्मदम्युपगमस्य दूषणाद्वेष, अर्थ (घ) पयंसेव
धूपं तद्यचावश्यमानीत्या बोजोकोद्दिष्टतमजित्वाद्गृहस्था यतिलिङ्गाभ्युपगमात्किल प्रवजिताश्वेत्येव पलायनं भवतामिति यदिवा स्वतोऽसयनुष्ठानमपरय सदनुष्ठायिना निन्दनमितिभावः ।
पात्रेषु कांस्यपाव्यादिषु गृहस्थभाजनेषु ।
: आजीवका परातकेसु कंसपादेसु भुजंति ।
हि म गेप तेहि आध
आधारोवकरण समझाया
करेध, गिलाणस्स य पिंडवातपडियाए गंतुमसमत्यस्स भत्तं मत्तेहि कुलगेण वा अण्णतरेण वा मत्तेहि अभिहडं मुंजध, एवं हि पापरिभोगेधितो भवति अन्तराय कायवधो सो य धणिमितं आणतो मतिमंतो वि कम्मबंधेण लिप्पति, पाणिपायं पि ण य कायध्वं जति पादे दोसो, स च किं तुज्ज देतो णट्टसप्पधसम्भावो ? उदाहु पधि वट्टति ? । अविण्णाण य मिगसरिसा तुम्भे जेण असंकिताई संकध संकितट्टाणाई ण संकध त्ति ।
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