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सूयगडो १
अध्ययन ३: टिप्पण ६६-६६ 'तिरिच्छ' शब्द आया है । आचारांग के चूर्णिकार और वृत्तिकार शीलांकसूरी ने उसका अर्थ प्रतिकूल किया है। हमने पूर्वापर संबंध के आधार पर आयारो के प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ 'मध्य' किया है।' ६६. आत्महित के लिए (अत्तताए)
चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं -
१. आत्महित के लिए। २. मोक्ष या संयम के लिए।
३. आप्तात्मा-इष्ट या वीतराग की तरह । वृत्तिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ ये हैं -
१. आत्मत्व-समस्त कर्म-मल से रहित आत्मत्व के लिए। २. मोक्ष के लिए। ३. संयम के लिए।
श्लोक ४६: ६७. गृहस्थों... (संबद्ध...)
पुत्र-स्त्री आदि के बंधन से बंधे व्यक्ति संबद्ध कहलाते हैं । यहां संबद्ध शब्द का प्रयोग गृहस्थ के अर्थ में किया गया है। ६८. श्लोक ४८:
वे अन्यतीर्थक कहते हैं--आपका सारा व्यवहार गृहस्थों जैसा है। जैसे माता पुत्र में मूच्छित होती है और पुत्र माता में, उसी प्रकार आपकी परंपरा में आचार्य शिष्य में मूच्छित होते हैं और शिष्य आचार्य में। जैसे गृहस्थ रोगी की परिचर्या करता है वैसे ही आप भी आचार्य, वृद्ध और रोगी की परिचर्या करते हैं। उन्हें आहार, वस्त्र-पात्र तथा स्थान की सुविधाएं देते हैं। यह तो गहस्थ-नीति है कि परस्पर में एक दूसर का दान आदि से उपकार किया जाये। ये कार्य साधु के योग्य नहीं हैं।
श्लोक ५० ६६. मोक्ष-विशारद (मोक्खविसारए)
मोक्ष-विशारद का अर्थ है--मोक्षमार्ग का प्ररूपक । चूर्णिकार ने विशारद का अर्थ 'सिद्धान्त विज्ञायक" और वृत्तिकार १. (क) आचारांग चूणि पृ०८५ : पडिकूलेणं तिरिच्छेण वा।
(ख) आचारांग वृत्ति पत्र १२५ : प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वा। २ आयारो, पृ०६७.... 'मध्य में........... ३ चूणि, पृ०६० : अत्तत्ताए आत्महिताय सर्वतो संव्रजेत्, सिद्धिगमनोद्यतेन मनसा। अथवा-आतो मोक्षः सञ्जमो वा अस्यार्थ:
'आतत्याए' । अथवा आप्तस्यात्मा आप्तात्मा, आप्तामेव आत्मा यास्य स भवति आप्तात्मा इष्टः वीतराग इव । ४. वृत्ति, पत्र ६१ : आत्मनो भाव आत्मत्वम्-अशेषकर्मकलडरहितत्वं तस्मै आत्मवत्ताय, यविवा-आत्मा-मोक्षः संयमो वा तद्भा
वस्तस्मै तदर्थम् । ५. (क) चूणि, पृ० ९० : समस्तं बद्धाः संबद्धा पुत्रदाराविभिप्रेन्थैर्गहस्थाः ।
(ख) वृत्ति, पत्र ६१ : सम्–एकोभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः पुत्र-कलत्राविस्नेहपाशः सम्बद्धाः-गृहस्थाः । ६. (क) चूणि, पृष्ठ ६० : माता पुत्ते मुच्छिता पुत्तो वि मातरि, एवं भवन्तो ऽपि शिष्या-ऽऽचार्यादिभिः परस्परं संबद्धाः। अन्यच्चेदं
कुर्वीत-............. भैक्षम्, एवं पिंडवायं गिलाणस्स आणेत्ता देध, यच्च परस्परतः सारेव वारेध पडिचोदेध सेज्जातो उट्ठवेध त्ति, जं च गिलाणस्स आयरिय-बुड-मामाएसु आहार-उवधि-वसधिमादिएहि
य उवग्गहं करेह। (ख) वृत्ति, पत्र ६१, १२। ७. चूणि, पृ० ९१ : विसारदो नाम सिद्धान्तविज्ञायकः ।
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