SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ वैद्यकशास्त्र, होराशास्त्र, मंत्र-विद्या आदि ।' १५६ इलोक ४३ : ६३. श्लोक ४३ : मुनि-धर्म से विचलित होने वाले व्यक्ति सोचते हैं कि न तो हमने पहले धन अर्जित किया था और न पैतृक धन प्राप्त है, इसलिये घर में जाने के बाद हम प्रवक्ता बनेंगे - जादू-टोना, विद्या मंत्र आदि का प्रयोग करेंगे । इस दृष्टि से वे पापत का अध्ययन करने सम जाते हैं।' श्लोक ४५ : ६४. श्लोक ४५ : 'ज्ञात' का अर्थ है -- लोक प्रसिद्ध । जो व्यक्ति नाम, कुल, कहते हैं। जैसे पवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिङ राजा आदि अर्थ किया है। अध्ययन ३ : टिप्पण ६३-६५ शौर्य और शिक्षा के आधार पर वृत्तिकार ने अगले श्लोक में 'एवं इस प्रकार के योद्धा एक दृढ़ संकल्प के साथ चलते हैं। उनका संकल्प होता है-- शत्रु सेना को जीतेंगे अथवा मर जायेंगे, किन्तु पीछे नहीं हटेंगे । चूर्णिकार ने इस प्रसंग में आवश्यक निर्युक्ति की गाथा उद्धृत की है— 'तरितव्वा व पइण्णिया, मरितध्वं वा समरे समत्यएणं । असरिजलाया हू सहितम्या कुले पसूयएम' प्रतिज्ञा का निर्वाह करेंगे अथवा समरांगण में प्राण दे देंगे। कुलीन पुरुष युद्ध में पीठ दिखाकर लोगों का ताना नहीं सह सकता ।" श्लोक ४६ ६५. छोड़कर ( तिरियं कट्टु ) पूर्णिकार ने इसका अर्थ-प्रतिकूल और वृत्तिकार ने इसका अर्थ छोड़कर किया है। आवारो (२/१२३) में Jain Education International विश्रुत होता है उसे 'ज्ञात' पद की व्याख्या में वहीं १. वृत्ति, पत्र १० : निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानाद्यवस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्यादित्येवमाजीविका भयमुत्प्रेक्ष्य 'अवकल्पयन्ति' परिकल्पयन्ति मन्यन्ते - इदं व्याकरणं, गणितं, जोतिष्कं वैद्यकं, होराशास्त्रं, मन्त्रादिकं वा तमधीतं ममावमायो णावस्थादिति । २. (क) चूर्णि, पृ० ८६ परिसहजिता अमुकेण चैव लिंगेण कोंटल-वेंटलादीहि कज्जेहि अट्टज्भाणेण चोदिज्जंता पवक्खामो, चोदिज्जंता, जिंता प्रायशः कुण्डलडीओ लोगो समणं पुच्छति तत्य चरेस्सामा विश्वपस्ामो न अस्थिपत्ति किचि आम्हेहि पुग्यो धणं पेद्रवं वा एवं बच्चा पावपसंग करेति । (ख) वृत्ति, पत्र ६० : इत्येवं ते वराकाः प्रकल्पयन्ति, न नः अस्माकं किञ्चन प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यावस्थायामुपयोगं यास्यति, अत: 'चोद्यमानाः' परेण पृच्छ्यमाना हस्तिशिक्षा धनुर्वेदादिकं कुटिल विष्टलादिकं वा प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामः प्रयोक्ष्यामः । ३. पृष्ठता नाम प्रत्यभिज्ञाता नामतः कुतः शीतः शिक्षातः । तद्यथावदेव वासुदेव मण्डलीकादयः । 1 ४. वृत्ति, पत्र ९१ : एवं इत्यादि यथा सुभटा ज्ञाता नामत: कुलतः शौर्यत: शिक्षातश्च तथ। सन्नद्धबद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभट समितिमेविनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति। ५. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १२५६, चूर्णि, पृ० ८६ ते तु संपहारेंति-तरितव्वा व पइण्णिया परबलं जेतव्वं वा मरितव्वं वा । ६. णि, पृ० १० वितिरियं नाम वितिरिक्खं बोलेंति, अनुलोमेहि दुक्तमतिकाम्यन्ते नदीधोतोब ७. वृत्ति, पत्र १ : 'तिर्यक्कृत्वा' अपहृत्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy