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________________ सूयगडो १ १५८ अध्ययन ३: टिप्पण ५८-६२ श्लोक ३८ ५८. तपस्या से (उवहाणेण) चूणिकार ने 'उवाहाणेण' के लिये 'तवोवहाणेण' का प्रयोग किया है। उत्तराध्ययन (२/४३) में भी 'तवोवहाण' का प्रयोग मिलता है। उपधान शब्द का प्रयोग तप के साथ भी मिलता है और स्वतंत्ररूप में भी मिलता है। यहां इसका प्रयोग संयम को सहारा देने वाले तप के अर्थ में हुआ है। जैसे तकिया सिर को सहारा देता है वैसे ही तप संयम को सहारा देता है । उपधान का एक अर्थ 'तकिया' भी है। प्रस्तुत सूत्र के ११/३५ में उपधानवीर्य का अर्थ तपोवीर्य किया है।' देखें-६/२० का टिप्पण । श्लोक ४० ५९. गढ़ा (वलय) चूणिकार ने इसका अर्थ किया है-एक द्वार वाला गर्ता-परिक्षेप (खाई का घेरा)। वह वलय के आकार का होता है इसलिए 'वलय' कहलाता है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-ऐसी वलयाकार खाई जिसमें पानी भरा हो या ऐसा जलरहित गढ़ा जिसमें प्रवेश या निर्गम कठिन हो।' ६०. खाई (गहन) चूर्णिकार ने वृक्ष, लता, गुल्म आदि के झुरमुट को 'गहन' माना है। वृत्तिकार ने कटिसंस्थानीय धव आदि वृक्षों से युक्त स्थान को 'गहन' माना है।' ६१. गुफा (णूम) ___णूम का अर्थ है-गुफा। चूर्णिकार के अनुसार 'नूम' का अर्थ है अप्रकाश (अन्धकार)। जहां व्यक्ति अपने आपको छिपाता है, उस गढ़े, गुफा आदि को 'नूम' कहा जाता है । वृत्तिकार ने प्रच्छन्न पर्वतीय गुफा को 'नूम' माना है।' श्लोक ४२ ६२. श्लोक ४२ अर्थोपार्जन और अर्थ-संग्रह का एक कारण है भविष्य की चिन्ता और आश्वासन । मनुष्य बुढ़ापे, बीमारी आदि कठिन परिस्थितियों में अपने आपको सुरक्षित रखने के लिये अर्थ का संग्रह करता है। मुनि की आत्मा भी दुर्बल होती है तब उसे भी भविष्य का भय सताने लग जाता है और वह भविष्य की चिंता से संत्रस्त होकर अर्थकरी विद्य-गणित, निमित्त, ज्योतिष, न्यायशास्त्र और शब्दशास्त्र का अध्ययन करता है। वृत्तिकार ने श्रुत की कुछ अन्य शाखाओं का भी उल्लेख किया है। जैसे १. सूयगडो ११॥३५, चूणि पृष्ठ २०३ : उपधानवीयं नाम तपोवोयं । २. चूणि पृ० ८८ : वलयं णाम एक्कद्वारो गड्डापरिक्खेवो वलयसंठितो वलयं भण्णति । ३. वृत्ति, पत्र ८९ : 'वलय' मिति यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम् उदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशा। ४. चूर्णि, पृ०८६ : गृह्यते यत् तद् गहनं वृक्षगहनं लता-गुल्म-वितानादि च । ५. वृत्ति, पत्र ८९ : गहनं धवादिवृक्षः, कटिसंस्थानीयम् । ६. चूणि, पृष्ठ ८८ : नूम नाम अप्रकाशं जत्थ णूमेति अप्पाणं गड्डाए दरीए वा। ७. वृत्ति, पत्र ८९ : 'म' ति प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम् । ८. चूणि, पृष्ठ ८९ : इमानीति अर्थोपार्जनसमर्थानि गणिय-णिमित्त-जोइस-वाय-सहसस्थाणि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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