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________________ सूयगडो १ १५७ अध्ययन ३: टिप्पण ५४-५७ श्लोक ३५: ५४. श्लोक ३५ भोगों के लिये भिक्षु को निमंत्रित करते हुए कहते हैं-भिक्षो ! यदि तुम आज गृहवास में भी आ जाओगे तो भी प्रव्रज्या ग्रहण करते समय जो महाव्रत अंगीकार किये थे, ते वैसे ही रहेंगे। उनका फल नष्ट नहीं होगा । वह तो तुमको अवश्य ही प्राप्त होगा, क्योंकि किये हुये सुकृत या दुष्कृत का कभी नाश नहीं होता। श्लोक ३६ : ५५. चारा (णीवार) इसका अर्थ है-चावलों की भूसी, चारा । उत्तराध्ययन १/५ में 'कणकुडग' शब्द आया है । ‘णीवार' और 'कणकुडग' एकार्थक प्रतीत होते हैं। चूर्णिकार ने णीवार का अर्थ--कुडग आदि किया है। उन्होंने लिखा है कि सूअर नीवार को पाकर घर में ही बैठा रहता है, वह जंगल में चरने नहीं जाता । अंत में वह मारा जाता है।' ___ वृत्तिकार ने 'नीवार' का अर्थ-विशेष प्रकार के चावल के कण किया है।' यह संभव है कि चावलों कि भूसी के साथ चावलों के कुछ कण भी मिश्रित कर सूअरों को दिये जाते थे। निशीथ भाष्य गाथा १५८८ की चूणि में कुक्कुस मिश्रित कणिका को 'कुंडक' कहा गया है। शब्दकोष में नीवार का अर्थ वनव्रीहि-जंगली चावल मिलता है।" विशेष विवरण के लिये देखें-उत्तरज्झयणाणि, १/५ का टिप्पण । ५६. श्लोक ३६ तुम्हें प्रवजित हुये लंबा समय बीत चुका है । तुमने धर्म की आराधना चिरकाल तक की है । विहार करते हुये तुमने अनेक प्रकार के देश, तपोवन और तीर्थ देखे हैं । ऐसी स्थिति में अब तुममें दोष ही क्या रह गया है ? यदि कोई व्यक्ति चोरी या व्यभिचार करता तो उसके दोष बढ़ते जाते किन्तु तुमने तो धर्म की आराधना की है, अतः तुम्हारे सारे दोष निःशेष हो गये हैं । तुमने महान तपस्याएं की हैं, जिनके फलस्वरूप तुम्हारे सारे दोष नष्ट हो गये हैं । अब तुम यदि श्रामण्य का परित्याग कर गृहवास में लौट आते हो तो भी लोग तुम्हारी निन्दा नहीं करेंगे । देखो, जो व्यक्ति तीर्थयात्रा के लिये घर से निकलता है, वह भी उचित अवधि के बाद पुनः घर लौट आता है। अतः तुम घर चलो, किसी बात की आशंका मत करो।' श्लोक ३७: ५७. ऊंची चढाई में (उज्जाणंसि) नदी, तीर्थस्थल और पर्वत की भूमि चढ़ाई युक्त होती है, अतः उसे उद्यान कहा जाता है। वृत्तिकार ने मार्ग के उन्नत भाग को उद्यान कहा है। १. (क) चूणि, पृ० ८७॥ __ (ख) वृत्ति, पत्र । २. चूणि, पृ० ८७ : णीयारो नाम कुंडगादि, स तेण णीयारेण द्वितो घरसूयरगो अडवि ण वच्चति मारिज्जति य । ३. वृत्ति पत्र ८८ : नीवारेण व्रीहिविशेषकणदानेन । ४. निशीथ भाष्य, गाथा १५८८ चूणि : तुसमुहोकणिया कुक्कुसमीसा कुंडग भण्णति । ५. अभिधानचिन्तामणि, ४।२४२ : नीवारस्तु वनव्रीहिः । ६. चूणि, पृष्ठ ८७ : चिरं तुमे धम्मो कतो, दूइज्जता य णाणा पगारा देसा दिठ्ठा तवोवणाणि तित्थाणि य । दोष इदानीं कुतस्तव ? कि त्वया चौरत्वं कृतं पारदारिकत्वं वा ? । अथवा दोसो पावं अधर्म इत्यर्थः, स कुतस्तव ?, क्षपितस्त्वया, कृतं सुमहत् तपः, ण य ते उप्पवयंतस्स वयणिज्जं भविस्सति, किं भवं चोरो पारदारिगो वा ? ननु तीर्थयात्रा अपि कृत्वा पुनरपि गृहमागम्यते। ७. चूणि पृ० ८७ : ऊवं यानं उद्यानम्, तत्र (तच्च) नदी तीर्थस्थलं गिरिपन्भारो वा। ८. वृत्ति, पत्र ८८ । ऊध्वं यानमुखानं- मार्गस्योन्मतो भाग उट्टमित्यर्थः । ७: चिरं तुमे धमलावारस्तु वनरोहित कुक्कुसमीसा कुंडग Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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