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सूयगडो १
४२. ब्राह्मण (माहणा
चूर्णिकार ने 'माहण' शब्द का अर्थ भट्ट किया है । आज भी भट्ट ब्राह्मणों की एक जाति है । प्रस्तुत प्रसंग में माहन शब्द का प्रयोग राज्य से संबंधित ब्राह्मणों के लिये किया गया है। राजा, राजामात्य, माहन और क्षत्रिय - ये सभी राज्य से सम्बन्धित है ।
५०. क्षत्रिय ( खत्तिया )
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चूर्णिकार के अनुसार गणपालक, गगराज्य में सम्मिलित होने के कारण जो राज्यच्युत हो गये हैं वे अथवा जो न राजा हैं और न राजवंशीय हैं उन्हें लत्रिय कहा गया है।' वृतिकार ने इश्वाकु आदि मंत्रों में उस व्यक्ति को दशकालिक सूत्र के व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ प्राप्त हैं ।
माना है।'
देखें- दसवेआलियं ६ / २ का टिप्पण ।
५१. निमन्त्रित करते हैं ( णिमंतयंति)
राजा निमंत्रित करते हैं - इस प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उत्तराध्ययन सूत्रगत ब्रह्मदत्त और चित्त के कथानक की ओर संकेत दिया है । चित्त और संभूत दोनों भाई थे। दोनों मुनि बने । दोनों ने अनशन किया। संभूत ने निदान किया। उसके फलस्वरूप वह मरकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ । चित्त का जीव एक सेठ के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। बड़े होने पर वह दीक्षित हो गया । ब्रह्मदत्त और चित्त दोनों पूर्वभव के भाई थे। एक बार मुनि चित्त कांपिल्यपुर में आये । ब्रह्मदत्त को भाई की स्मृति हो आई । वह मुनि के पास आया। उन्हें पुनः गृहवास में लौट आने के लिये निमंत्रण देते हुये बोला- 'मुने ! ये विभिन्न प्रासाद हैं । पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य आदि से पूर्ण यह घर है, इसका तुम उपभोग करो। तुम नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों से परिवृत होकर इन भोगों को भोगो ।"
पूरे कथानक के लिये देखें - उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन का आमुख |
श्लोक ३४ :
अध्ययन ३ : टिप्पण ४-५३
५२. यान के द्वारा (जाणेह )
चूर्णिकार ने 'यान' को जल और स्थल इन दोनों से सम्बन्धित माना है। नौका आदि जलयान हैं। शिविका आदि स्थलयान हैं ।'
५२. उद्यानक्रीडा (बिहारगमणेहि )
इसका अर्थ है - उद्यानिकागमन – उद्यानक्रीड़ा। उत्तराध्ययन में इस अर्थ में विहारयात्रा का प्रयोग मिलता है । "
१. चूर्ण, पृ० ८६ : माहणा भट्टा ।
२. चूर्ण, पृ० ८६ : खत्तिया नाम गणपालगा, गणभुत्तीए वा भ्रष्ट राज्याः, जे वा भरायाणो अरायवंसिया ।
३. वृत्ति, यत्र ८७ क्षत्रिया इक्ष्वाकुवंशप्रभृतयः ।
७. (क) पूथि, पृ० ८७
(ख) वृत्ति पत्र उत्तर
४. (क) चूर्णि पृ० ८६
तत्थ बंभदत्तेण चित्तो निमंतिओ ।
(ख) वृति, पत्र
यथा ब्रह्मत्तवति नानाविधमपिमिश्रित इति।
५. उत्तरज्झयणाणि १३।१३, १४ : उच्चोयए महु कक्के य बम्भे, पवेइया आवसहा य रम्मा ।
हर्म हिं चित्तद्यणप्पभयं पसाहि पताह पंचाल गोववे ॥ नट्टेहि गीएहि य वाइएहि नारीजणाई परिवारयन्तो ।
जाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू ! मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ।।
६. चूणि, पृ० ८७ : जाणाणि सीदा-पंदमाणिपादोणि । तं पुण थले य, जले णावादि, थले सीता-संमाणियावी ।
विहारगनणा इति उपागमणा ।
विहारयमनेः विहरणं की बिहारस्तेन गमनानि विहारगमनानि उद्यानादी क्रीडया गमनानीत्यर्थः । २० / २ बिहारजतं निज्जाओ ।
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