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________________ सूयगडो १ १६३ अध्ययन ३ : टिप्पण ७६ तक ले जाने वाली नहीं है।' चूणिकार ने 'अग्गे वेणुव्व' की पाठान्तर के रूप में व्याख्या की है। जैसे-बांस के मुरमुट में कोई बांस मूल से कट जाने पर भी, परस्पर संबंद्ध होने के कारण उसे ऊपर से या नीचे से नहीं खींचा जा सकता। वह भूमि तक नहीं पहुंच पाता। इसी प्रकार आपकी बात निश्चय तक नहीं पहुंच पा रही है। आप गृहस्थ के द्वारा आनीत आहार को खाना श्रेय बतलाते हैं और मुनि के द्वारा आनीत आहार को खाना अर्थ य बतलाते हैं । यह सिद्धान्त युक्तिक्षम नहीं है।' व्यवहार भाष्य में भी वंश की उपमा प्राप्त है। जैसे बांसों की मुरमुट में मूल से कटा हुआ बांस भी, परस्पर संबद्ध होने के कारण भूमि तक नहीं पहुंचता, बीच में ही स्खलित हो जाता है।' श्लोक ५५ : ७६. श्लोक ५५: 'रुग्ण श्रमण की सेवा करने वाला गृहस्थ के समान आचार वाला होता है'-आजीवक जैन श्रमणों पर यह आरोप लगाते थे । ४७वें श्लोक में परिभासंति' शब्द की व्याख्या में आरोप लगाने वालों के रूप में आजीवक और दिगम्बर का उल्लेख किया है।' दिगंबर का उल्लेख स्वाभाविक नहीं है। प्रस्तुत सूत्र की रचना के समय श्वेताम्बर-दिगम्बर जैसा कोई विभाग नहीं था। यह आरोप आजीवकों का हो सकता है। इस प्रकरण से ज्ञात होता है कि जैन श्रमण रुग्ण श्रमण की परिचर्या करते थे, उसे भोजन लाकर देते थे और पात्र रखते थे। आजीवक ऐसा नहीं करते थे। वे रुग्ण अवस्था में गृहस्थों से परिचर्या करवाते थे। उनके द्वारा लाया हुआ भोजन लेते थे। आजीवकों का आरोप था जो श्रमण है, उसे दूसरे श्रमण को दान देने का अधिकार नहीं है। श्रमण को दान देने का अधिकार गृहस्थ को है । जो श्रमण रुग्ण श्रमण को आहार लाकर देते हैं वे गृहस्थ के समान हो जाते हैं। इस आरोप के उत्तर में जैन श्रमणों ने कहा-'ये दो विकल्प हैं-(१) श्रमण के द्वारा लाया हुआ आहार लेना (२) गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार लेना - इन दोनों में हम प्रथम विकल्प को श्रेष्ठ मानते हैं।' अजीवकों ने कहा-हम दूसरे विकल्प को श्रेष्ठ मानते हैं । जैन श्रमणों ने कहा-आपका यह वचन निश्चय तक पहुंचाने वाला नहीं है। जैसे बांस जड़ में स्थूल और अग्रभाग में पतला होता है वैसे ही आपका यह वचन संकल्प में स्थूल है किन्तु निश्चायक नहीं है । आप लोग गृहस्थों का लाया हुआ खाते हैं किन्तु भिक्षु के द्वारा लाया हुआ नहीं खाते । क्या गृहस्थ देखकर चलता है ? क्या वह चलते हुए हिंसा नहीं करता? क्या वह भिक्षु के लिये भोजन तैयार नहीं करता? वह इन सब दोषों का सेवन करता है, फिर भी आप लोग उसके द्वारा लाया हुआ भोजन स्वीकार करते हैं और एक भिक्षु अहिंसा पूर्वक भोजन लाकर देता है, उसे आप सदोष मानते हैं, इसलिए आपका वचन अहिंसा की दृष्टि से निश्चायक नहीं है। १.णि, पृ० ६२ : बिल्वो हि मूले स्थिरः अग्रे कर्षितः, एवमियं वाग् भवतां संकल्पस्थूरा, निश्चयाकृता न हि भवन्तः, न सम्बद्धकल्पाः । २ चणि पृ० ६२ : अथवा---एरिसा मे बई एसा अग्गे वेलु व्व करिसिति' ति, जधा व वंसीकडिल्ले वंसो (5) मूलच्छिण्णो न शक्यते अन्योन्यसम्बंधत्वान्न शक्यतेऽधस्ताद् उपरिष्टाद्वा कर्षितुम् । यथाऽसौ बसो ण णिव्वहति एवं भवतामपि इयं वाग न निर्वाहिका, तत्र अनिर्वाहिका गिहिणो अभिहडं सेयं, भवन्तो हि सम्प्रतिपन्ना निर्मुक्तत्वात् संसारान्तं करिष्यामः तन्न निर्वहति, कथम् ? यद् भवतां ग्लायतामग्लायता गृहस्थः कन्दादीनां मात्रेणाऽऽनयित्वा ददाति तत् किल भोक्तुं श्रेयः न तु यद् भिक्षुणाऽऽनीतमिति, एषा हि वाग् भवतां न निर्वाहिका । ३. व्यवहार भाष्य २४६ : वृत्ति पत्र ४५ : बंसकडिल्ले-वंशगहने छिन्नोऽपि वेणुको वंशो महीं न प्राप्नोति । अन्यैरन्यवंशेरपान्तराले स्खलितत्वात् । ४. (क) सूयगडो ३।४७ : परिभासंति, चूणि पृ० ६० : आजीविकप्रायाः अन्यतोयिकाः, सुत्तं अणागतोभासियं च काऊण बोडिगा। (ख) वृत्ति, पत्र ६१ : ते च गोशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा.......... परि-समन्ताभाषन्ते । ५. (क) चूणि, पृ० ६२ । (ख) वृत्ति, पत्र ६३ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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