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________________ चू सूयगडो. ५४२ अध्ययन १३ : टिप्पण ५६-५६ ५६. विशारद (विसारए) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं--- १. अर्थ ग्रहण करने में समर्थ । २. प्रियता से कथन करने वाला। वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. अर्थ ग्रहण करने में समर्थ । २. अनेक प्रकार से व्याख्या करने में समर्थ । ३. भोता के अभिप्राय को जानने वाला। प्रस्तुत सूत्र के १४।१७ में विशारद शब्द आया है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ अपने सिद्धान्तों का जानकार' और वृत्तिकार ने अपने सिद्धान्तों का यथार्थ प्रतिपादन करने वाला-किया है।' ५७. प्रखर प्रज्ञावान् (आगाढपण्णे) आगाढप्रज्ञ का अर्थ है--- प्रखर प्रज्ञावान्, परमार्थ पर्यवसित और तत्त्वनिष्ठ प्रज्ञा से सम्पन्न व्यक्ति । ५८. श्रुत से भावित आत्मा (सुय-भावियप्पा) चूणिकार ने श्रुत का अर्थ - वैशेषिक आदि के हेतुशास्त्र (तर्कशास्त्र) किया है। उससे जिसकी आत्मा भावित है, वह श्रुतभावितात्मा कहलाता है। चूर्णिकार का यह अर्थ सामयिक वाद-विवाद से प्रभावित होकर किया गया प्रतीत होता है। वृत्तिकार ने 'सुविभाविअप्पा' पाठ मानकर उसका अर्थ सम्यक् और विविध प्रकार से धर्म की वासना से वासित आत्मा किया है। ५९. पराजित कर देता है (परिहवेज्जा) परिभव के दो अर्थ हैं-पराजित करना, तिरस्कृत करना । वृत्तिकार ने दूसरा अर्थ स्वीकृत किया है। वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक के अंतिम चरण का तात्पर्य भिन्न प्रकार से किया है-निर्जरा के हेतुभूत पूर्वोक्त गुणों में मद करता हुआ वह मानता है-मैं ही भाषाविधिज्ञ हूं, मैं ही साधुवादी हूं, मेरे जैसा प्रतिभावान् दूसरा कोई नहीं है, लोकोत्तर शास्त्र का अर्थ करने में मेरे समान कोई प्रवीण नहीं है, मेरी प्रज्ञा तत्त्वनिष्ठ है, मैं ही सुभावितात्मा हूँ'- इस प्रकार आत्मोत्कर्ष करता हुआ वह दूसरे व्यक्ति की अवमानना करता है और कहता है-इस कुंठित वाणी वाले, कुंडिका में पड़ी सूई के समान तथा आकाश की १. चूर्णि, पृ० २२४ : अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा । २. वृत्ति, पत्र २४३ : विशारदः- अर्थग्रहणसमर्थो बहुप्रकारार्थकथनसमर्थो वा, च शब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायज्ञः । ३. चूणि, पृ० २३३ : विशारदः स्वसिद्धान्तजानकः । ४. वृत्ति, पत्र २५४ : सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छोतृणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति'-प्रतिपादको भवति । ५. वृत्ति, पत्र २४३ : अवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा --बुद्धिस्यासावागाढप्रज्ञः । ६. चूर्णि, पृ० २२४ : (श्रतं) वैशेषिकाविहेतुशास्त्राणि, तेरस्य मावितः आत्मा स भवति (श्रत) भावितास्मा। ७. वत्ति पत्र २४३ : सष्ठ विविध भावितो-धर्मवासनया वासित आत्मा यस्यासौ सुविमावितात्मा। ८. वत्ति, पत्र २४३ : परिभवेत् अवमन्येत । ६. वृत्ति, पत्र २४३ : यश्चैभिरेव निर्जराहेतु भूतैरपि मदं कुर्यात्, तद्यथा--अहमेव भाषाविधिज्ञस्तथा साधुवाद्यहमेव च न मत्तल्य: प्रतिभानवानस्ति, नापि च मत्समानोऽलौकिकः लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोऽवगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेति च, एवमात्मोत्कर्षवानन्यं जनं स्वकीयया प्रज्ञया परिभवेत्, अवमन्येत, तथाहि किमनेन वाककुण्ठेन दुर्दुरूढेन कुण्डिकाकासकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? क्वचित्स मायां धर्मकथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति तथा चोक्तम् । अन्यः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वाङ्मयमित इति खावत्यङ्गानि दर्पण ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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