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________________ सूयगडो १ ५४३ अध्ययन १३ : टिप्पण ६०-६४ ओर झांकने वाले से क्या कार्य हो सकता है। धर्मकथा के अवसर पर परिषद् में इस प्रकार अपना उत्कर्ष प्रदर्शित करता है। वह दूसरों द्वारा स्वेच्छारचित अर्थों को श्रमपूर्वक जान लेता है और फिर पूरा वाङ्मय मेरे पास है इस प्रकार दर्प के साथ अपने ही अवयवों को काटता है। श्लोक १४: ६०. समाधि को प्राप्त (समाहिपत्ते) चूर्णिकार ने समाधि से चार प्रकार की समाधि का ग्रहण किया है-ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि, चारित्र समाधि, और तपः समाधि। वृत्तिकार ने समाधि के दो अर्थ किए हैं - १. ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप मोक्ष मार्ग । २. धर्म-ध्यान। ६१. लाभ के मद से मत्त (लाभमदावलिते) वह सोचता है-मैं वस्त्र, पात्र, पीढ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि पदार्थ दूसरों को भी देने में समर्थ हूं तो भला स्वयं के उपभोग की तो बात ही क्या ! दूसरे व्यक्ति (तुम और वह) बेचारे स्वयं के लिए भी अन्न-पान प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं।' श्लोक १५ : ६२. प्रज्ञामद, तपोमब, गोत्रमद (पण्णामद..... तवोमदं...."गोयमदं) प्रज्ञा का गर्व करना, जैसे-मैं ही शास्त्र के यथार्थ अर्थ को जानने वाला हूं। तपस्या का गर्व करना, जैसे-मैं ही विकृष्ट तप करने वाला हूं, मुझे तपस्या से कभी ग्लानि नहीं होती। गोत्र का मद, जैसे-मैं इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश आदि उच्च वंशों में उत्पन्न व्यक्ति हूं।" ६३. आजीविका मद (आजीवगं) जिसके द्वारा प्राणी जीवन यापन करते हैं उसे 'आजीव' कहा जाता है । वह है-अर्थसमूह ।' ६४. उत्तम आत्मा (उत्तमपोग्गले) पुद्गल का एक अर्थ आत्मा भी है। उत्तम पुद्गल अर्थात् उत्तम आत्मा, श्रेष्ठ जीव । वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में पुद्गल शब्द को प्रधानवाची मान कर 'उत्तम पुद्गल' का अर्थ-उत्तम से भी उत्तम अर्थात् महान् से भी महान् किया है।' १. चूणि, पृ० २२४ :............ समाधिश्चतुर्विधः। २. वृत्ति, पत्र २४३ : 'समाधि' मोक्षमार्ग-ज्ञानवर्शनचारित्ररूपं-धर्मध्यानालयं वा। ३. चूणि, पृ० २२४ : अहं वत्थ-पडिग्गह-पीढ-फलग-सेज्जासंथारगमादी अण्णस्स वि ताव दावेउं सत्तो, किमंग पुण अप्पणो अप्पावितुं तुमं सो वा सअण्ण-पाणगमवि ण लमसि । ४. वृत्ति, पत्र २४३ । ५. वृत्ति, पत्र २४३ : आ-समन्तारजीवन्त्यनेनेत्याजीवः-अर्थनिचयस्तम् । ६. (क) भगवई, ८१४९९ : जीवे गं मंते ! कि पोग्गली? पोग्गले ? गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। (ख) वृत्ति, पत्र २४३ : पुद्गल आत्मा भवति । ७. वृत्ति, पत्र २४३ : प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दः, ततश्चायमर्थः उत्तमोत्तमो-महतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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