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सूयगडो।
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अध्ययन १३ : टिप्पण ६५-६५
चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-- लाटदेश वासी सुन्दर को 'पुद्गल' कहते हैं, जैसे-पुद्गल जन्म, अर्थात् सुन्दर जन्म, पुद्गल जव अर्थात् सुन्दर यव ।'
__आप्टे की डिक्शनरी में पुद्गल का एक अर्थ-- सुन्दर, प्रिय किया है। दूसरे अर्थ ये हैं-परमाणु, शरीर, आत्मा, अहं, पुरुष आदि।
श्लोक १६ : ६५. चारित्र-संपन्न मुनि (सुधीरधम्मा)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-ज्ञानधर्मी, गीतार्थ ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-श्रत और चारित्र धर्म में प्रतिष्ठित किया है।' ६६. उनका सेवन न करें (ताणि सेवंति)
_ 'मुनि उन पदों का सेवन नहीं करते'- इस कथन का तात्पर्य यह है कि मुनि जाति आदि का मद नहीं करते । जैसे-मुनि के लिए यह निषेध है कि वह पूर्वक्रीडित कामभोगों का स्मरण न करे, उसी प्रकार प्रवजित होने के पश्चात् अपनी उच्च जाति, वंश तथा विपुल ऐश्वर्य आदि को याद न करे । प्रव्रज्या के बाद जो श्रुत सीखा है, उस बहुश्रुतता का भी उत्कर्ष न दिखाए। ६७. (उच्चं अगोतं च गति वयंति)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस चरण का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है।
वे इस संसार में उच्च अर्थात् सर्वलोक की उत्तमता को प्राप्त कर निर्वाणसंज्ञक अगोत्र स्थान को प्राप्त करते हैं यह चूर्णिकार का अभिमत है।
वे उच्च अर्थात् मोक्ष गति या सर्वोत्तम गति को प्राप्त होते हैं जहां गोत्र आदि कोई कर्म नहीं है । यह वृत्तिकार का अभिमत है। उन्होंने 'च' शब्द से पांच कल्पातीत विमानों का ग्रहण किया है।'
श्लोक १७: ६८. मृत शरीर वाला (मुतच्चे)
इसमें दो पद हैं-मृत और अर्चा । यहां अर्चा का अर्थ शरीर है। इस संयुक्त पद का अर्थ होगा-मृत शरीर वाला । भिक्षु को मृत शरीर की भांति व्यवहार करना चाहिए। जैसे मृत व्यक्ति न सुनता है, न देखता है, उसी प्रकार भिक्षु सुनता हुआ भी न सुने, देखता हुआ भी न देखे । यही मृतार्च की परिभाषा है।' १. चूणि, पृ०२२४ : उत्तमपुद्गलश्च, उत्तमजीव इत्यर्थः । अथवा जो शोभणो लाडाणं सो पुद्गलो वुश्चति, जधा पुद्गलजम्मो
पुग्गलजवत्ती। २. आप्टे, संस्कृतइंग्लिश डिक्शनरी, 'पुद्गल' शब्द । ३. चूणि, पृ० २४४ : सुष्ठु धीरधर्माणः ज्ञानर्धामणो गीतार्थाः । ४. वृत्ति, पत्र २२४ : सुप्रतिष्ठितो धर्म:- श्रुतचारित्रास्यो येषां ते सुधीरधर्माणः । ५. चूणि, पृ० २२४ : न जात्यादिभिरात्मानं उत्कर्षेत्, यथापूर्वरतादीनि न स्मर्यन्ते तथा तान्यपि, न वा पश्चाज्जातैर्बहुश्रुतादिमि
रात्मानं उत्कर्षेत्। ६ चूणि, पृ० २२४ : उच्चं नाम इहैव सर्वलोकोत्तमतां प्राप्य लोकाग्रं निर्वाणसंज्ञकं अगोत्रस्थान प्राप्नोति । ७. वृत्ति, पत्र २४४ : उच्चां-मोक्षाख्यां सर्वोत्तमा वा गति व्रजन्ति-गच्छन्ति, च शब्दात् पञ्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा व्रजन्ति,
अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम् । ८. (क) चूणि, पृ० २२५ : अर्चयन्ति तां विविधराहारैर्वस्त्राद्यलङ्कारश्चेत्यर्चा ।
(ख) वृत्ति, पत्र २४४ : अर्चा-तनुः शरीरम् । ६. चूणि, पृ० २२५ : मतो हि न शृणोति न पश्यतीत्यर्थः, एवं भिक्षुरपि शृण्वन्नपि न शणोति, पश्यन्नपि न पश्यतीत्यादि इत्यतो
मुतच्चा।
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