________________
सूयगडो १
५४५
अध्ययन १३ टिप्पण ६९-७२
अथवा 'मुत्' का अर्थ है -- संयम और अर्चा का अर्थ है -- लेश्या । जिसके संयममय लेश्या होती है वह मुद कहलाता है । तीन प्रशस्त लेश्याएं संयममय होती हैं ।"
वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए है
१. जो मरे हुए शव की तरह अपने शरीर का स्नान, विलेपन आदि संस्कार नहीं करता वह 'मृतार्च' कहलाता है ।
२. मुद् का अर्थ है सुन्दर, प्रशस्त और अर्चा का अर्थ है - लेश्या । जिसकी लेश्याएं प्रशस्त हैं, वह मुद कहलाता है।
इसकी तुलना 'वोसचत्तदेहे' - व्युत्सृष्टत्यक्तदेह से की जा सकती है ।
६९. धर्म को प्रत्यक्ष करने वाला (विदुधम्मे)
यहां दृष्ट का अर्थ केवल देखना नहीं है। इसका अर्थ है- प्रत्यक्ष करना, साक्षात् करना । दृष्टधर्मा वही होता है जो धर्म को प्रत्यक्ष कर लेता है, धर्म जिसके जीवन में साक्षात् हो जाता है ।
चूर्णिकार ने इसका अर्थ -- दृष्टसार अर्थात् जिसने सार देख लिया है— किया है। जो सूत्र और अर्थ का ज्ञाता होता है, वह दृष्टधर्मा है।"
वृत्तिकार ने श्रुत और चारित्र धर्म के ज्ञाता को दृष्टधर्मा कहा है । *
७०. एषणा और अनेषणा को जानता है (एसणं ...अणेसणं)
....
Jain Education International
एषणा के तीन अर्थ है
१. स्थविरकल्पी मुनियों के लिए बयालीस दोषों से रहित आहार- पान एषणीय है, शेष अनेषणीय ।
२. जिनकल्पी मुनि के लिए अलेप आदि पांच प्रकार की एषणा और शेष अनेषणा ।
३. जिसका जो अभिग्रह है, वह उसके लिए एषणा है, शेष अनेषणा ।"
श्लोक १८:
७१. अरति और रति को (अति ति)
प्रस्तुत प्रकरण में संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति के अभिभव का निर्देश किया गया है । सहज ही मनुष्य मन असंयम में रमण करता है, संयम में रमण नहीं करता । इस स्वाभाविक वृत्ति को साधना के द्वारा ही बदला जा सकता है ।
७२. संघवासी हो (बहुजणे)
जिसकी संयम यात्रा में अनेक जन सहायक होते हैं वह 'बहुजन' होता है । यह संघवासी, गच्छवासी का द्योतक है । १. पृ० २२५ वा तनुष्यते, अति लेश्या समुतस्यो मुतच्या विशुद्धानो सम्मताओं अविद्धासम्म
ताओ ।
२. वृत्ति, पत्र २४४ : मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावावर्धा - तनुः शरीरं यस्य स मृतार्थः; यदि वा मोदनं मुत् तद् भूता शोभनापद्मादिकालेश्या यस्य स भवति सुदर्चः प्रशस्तलेश्यः ।
३. चूर्ण, पृ० २२५ : सूत्रे चार्थे च दृष्टधर्मा, दृष्टसारो दष्टधर्मा इत्यर्थः ।
४ वृत्ति पत्र २४४ दृष्टः अवगतो यथावस्थितो धर्मः- - तचारित्राढ्यो येन सः ।
५. (क) चूणि, पृ० २२५: स एषणा बातालीसदोसविसुद्धा तस्त्रिवता अणेसणा । अथवा एसणा जिनकप्पियाणं पंचविधा अलेवाडादि, ट्ठिलगातो असणातो अथवा जा अभिग्गहिताणं सा एसणा, सेसा असणा । (ख) वृत्ति पत्र २४४ ]:
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org