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________________ सूयगडो १ प्रध्ययन १३ : टिप्पण ७३-७६ जैन परम्परा में कुछ पुरुष संघबद्ध साधना करते हैं और कुछ अकेले रहकर साधना करते हैं । यह शब्द 'संघवासी' साधना का प्रतीक है। ७३. एकचारी (अकेला विचरण करने वाला) (एगचारी) इसका अर्थ है- अकेला साधना करने वाला, एकलविहारी।' हर कोई मुनि एकलविहारी नहीं हो सकता। यह एक विशेष 'प्रतिमा' है, जिसे विशिष्ट श्र तसंपन्न और गुणसम्पन्न व्यक्ति ही ग्रहण कर सकता है। एकलविहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर साधना करने का संकल्प । स्थानांग सूत्र (12) में एकलविहार प्रतिमा स्वीकार करने वाले साधक की योग्यता के आठ अंग बतलाए हैं १. श्रद्धावान् -अपने अनुष्ठान के प्रति पूर्ण आस्थावान् । २. सत्यवादी। ३. मेधावी। ४. बहुध त । ५. शक्तिमान् । ६. अल्पाधिकरण-उपशान्त कलह की उदीरणा एवं नए कलहों की उद्भावना न करने वाला। ७. धृतिमान् । ८. वीर्यसंपन्न-साधना में सतत उत्साह रखने वाला ।' वृत्तिकार ने 'एगचारी' से एकलविहारी अथवा जिनकल्पी का ग्रहण किया है। जिनकल्पी मुनि अकेले रहते हैं किन्तु 'एकलविहारी' और जिनकल्पी की चर्या और साधना में अन्तर होता है। जिनकल्प की चर्या के लिए देखें-ठाणं, पृष्ठ ७०४-७०६ । ७४. एकान्त मौन (संयम) के साथ किसी तत्त्व का निरूपण करे (एगंतमोणेण वियागरेज्जा) मौन का अर्थ है-संयम । एकान्त मौन अर्थात् एकान्त संयम । धर्मकथा करने के अवसर पर मुनि पूछे जाने पर या बिना पूछे भी संयमपूर्वक बोले । वह धर्म संबंधी ऐसी बात कहे जिससे संयम में कोई बाधा न आए। वह पापकारी, सावद्य या कार्य का प्रत्यक्ष निर्देश देने वाली भाषा न बोले। श्लोक १७: ७५. जानकर (समेच्चा) धर्म का प्रतिपादन करने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं। कुछ साधक अतीन्द्रियज्ञान को विकसित कर सत्य को स्वयं जान लेते हैं, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं। कुछ साधक परोक्षज्ञानी होते हैं। वे प्रत्यक्षज्ञानी से सुन कर सत्य का प्रतिपादन करते हैं। ७६. निदान के प्रयोग (सणिवाणप्पओगा) प्रस्तुत श्लोक के अंतिम दो चरणों का अर्थ है-धर्मकथी मुनि निदान के प्रयोगों (बंधन पैदा करने वालों) का सेवन न करे। १. (क) चूणि, पृ० २२५ : बहुजणमज्झम्मि गच्छवासी । (ख) वृत्ति, पत्र २२४-२४५ : बहवो जना।—साधवो गच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः । २. चूणि, पृ० २२५ : एगचारि त्ति एगल्लविहारपडिवण्णगो। ३ विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं १ का टिप्पण, पृष्ठ ८२३ । ४. वृत्ति, पत्र २४५ : तथैक एव चरति तच्छीलश्चकचारी, स च प्रतिमाप्रतिपन्न एकलविहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात् । ५. (क) चूणि, पृ० २२५ : एगंतमोणेण तु एगंतसंयमेणं, एकान्तेनैव संजममवलम्बमानः पृष्टो वा किञ्चिद् वाकरोति, न तु यथा मौनोपरोधो भवति, संयमोपरोध इत्यर्थः । तद्यथा-'जाय भासा पाविका सावज्जा सकिरिया।" (ख) वृत्ति, पत्र २४५। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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