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प्र०१: समय : श्लो० ७९-८६
सूयगडो १ ७६. कडेसु घासमेसेज्जा विऊ दत्तेसणं चरे। अगिद्धो विप्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए।४।
कृतेषु ग्रासमेषयेत्, विद्वान् दत्तषणां चरेत् । अगद्धः विप्रमुक्तश्च, अवमानं परिवर्जयेत् ।।
७६. विद्वान् भिक्षु गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत आहार
की एषणा (याचना) करे और प्रदत्त आहार का भोजन करे ।" वह आहार में अनासक्त और अप्रतिबद्ध होकर अवमान संखडी (विशेष प्रकार के भोज) में न जाए।
५०.लोगवायं णिसामेज्जा
इहमेगेसिमाहियं विवरीयपण्णसंभूयं अण्णवुत्त-तयाणुगं
लोकवादं निशाम्येत्, इह एकेषां आहृतम् । विपरीतप्रज्ञासम्भूतं, अन्योक्त-तदनुगम् ॥
८०. कुछ वादियों द्वारा निरूपित लोकवाद को सुनो,
जो विपरीत प्रज्ञा से उत्पन्न है और जो दूसरे की कही हुई बात का अनुगमन मात्र है।
८१. अणंते णितिए लोए
सासए ण विणस्सई। अंतवं णितिए लोए इइ धीरोऽतिपासई ।।
अनन्तो नित्यो लोकः, शाश्वतः न विनश्यति । अन्तवान् नित्यो लोकः, इति धीरोऽतिपश्यति ।।
८१. कुछ मानते हैं कि लोक नित्य, शाश्वत और अवि
नाशी है, इसलिए अनन्त है। किन्तु धीर पुरुष देखता है कि लोक नित्य होने पर भी सान्त है।
५२. अपरिमाणं वियाणाइ
इहमेगेसि आहियं । सव्वत्थ सपरिमाणं इइ धीरोऽतिपासई ७।
अपरिमाणं विजानाति, इह एकेषां आहृतम् । सर्वत्र सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपश्यति ।।
८२. ज्ञात हो रहा है कि लोक अपरिमित है, वह कुछ
धामिकों द्वारा आख्यात है, किन्तु धीर पुरुष सर्वत्र (सब अवस्थाओं में) उसे परिमित देखता है।५०
८३. जे केइ तसा पाणा चिट्ठतदुव थावरा। परियाए अत्थि से अंज जेण ते तसथावरा ।।
ये केचित् त्रसाः प्राणाः, तिष्ठन्ति अथवा स्थावराः । पर्याय: अस्ति स ऋजुः, येन ते त्रसस्थावराः ।।
८३. इस लोक में कुछ प्राणी त्रस हैं और कुछ स्थावर
हैं। यह उनका व्यक्त पर्याय है। (अपने-अपने व्यक्त पर्याय के कारण) कुछ त्रस होते हैं और कुछ स्थावर होते हैं ।।
८४. उरालं जगतो जोगं
विवज्जासं पलेंति य । सव्वे अकंतदुक्खा य अओ सव्वे अहिंसगा ।।।
उदारं जगतः योगं, विपर्यासं परायन्ति च । सर्वे अकान्तदुःखाश्च, अत: सर्व अहिंस्यकाः ।।
८४. जगत् में घटित होने वाली विभिन्न अवस्थाएं हमारे
सामने हैं । दूसरी विपरीत अवस्था के आने पर पहली अवस्था प्रलीन हो जाती है। कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता, इसलिए सभी जीव अहिंस्य हैं-हिंसा करने योग्य नहीं हैं । १५५
८५. एयं खु णाणिणो सारं
जं ण हिसइ कंचणं । अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया।१०।
एतत खलु ज्ञानिन: सारं, यत् न हिनस्ति कञ्चनम् । अहिंसां समतां चैव, एतावत् विजानीयात् ।।
८५. ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा
नहीं करता । समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है ।५४
८६. वुसिते विगयगिद्धी य
आयाणं सारक्खए। चरियासणसेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो।११।
व्यूषितः विगतगद्धिश्च, आत्मानं संरक्षेत् । चर्यासनशय्यासु, भक्तपाने च अन्तशः ।।
८६. संयमी धर्म में स्थित रहे, किसी भी इन्द्रिय-विषय
में आसक्त न बने,५६ आत्मा का संरक्षण करे और जीवन-पर्यन्त चर्या, आसन, शय्या और भक्तपान के विषय में होने वाले असंयम से अपने आपको बचाए।
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