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प्र० १: समय : श्लो०७२-७८
सूयगडो १ ७२. एयाणवीइ मेहावी बंभचेरं ण तं वसे। पुढो पावाउया सव्वे अक्खायारो सयं सयं ॥१३
७२. इन वादों का अनुचिन्तन कर मेधावी मुनि उनके
गुरुकुल में निवास न करे। भिन्न-भिन्न मत वाले वे सब प्रावादुक अपने-अपने मत का आख्यान करते हैं-प्रशंसा करते हैं।
एतद् अनुविविच्य मेधावी, ब्रह्मचर्यं न तद् वसेत् । पृथक् प्रावादुकाः सर्वे, आख्यातारः स्वकं स्वकम् ॥ स्वके स्वके उपस्थाने, सिद्धिरेव नान्यथा । अधोऽपि भवति वशवर्ती, सर्वकामसमर्पितः
७३. सए सए उवदाणे
सिद्धिमेव ण अण्णहा । अधो वि होति वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए ॥१४
७३. (वे कहते हैं) अपने-अपने सांप्रदायिक अनुष्ठान में
ही सिद्धि होती है, दूसरे प्रकार से नहीं होती । सिद्धि (मोक्ष) से पूर्व इस जन्म में भी जितेन्द्रिय मनुष्य के प्रति सब कामनाएं समर्पित हो जाती हैंउसे आठों सिद्धियां उपलब्ध हो जाती हैं।
७४. सिद्धा य ते अरोगा य
इहमेगेसि आहियं । सिद्धिमेव पुरोकाउं सासए गढिया णरा ॥१५
सिद्धाश्च ते अरोगाश्च, इह एकेषां आहृतम् । सिद्धिमेव पुरस्कृत्य, स्वाशये ग्रथिता: नराः ।।
७४. कुछ दार्शनिकों का यह निरूपण है कि (सिद्धि-प्राप्त
मनुष्य शरीरधारी होने पर भी) सिद्ध ही होते हैं । वे रोगग्रस्त होकर नहीं मरते। (किन्तु वे स्वेच्छा से शरीर-त्याग कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।) इस प्रकार सिद्धि को ही प्रधान मानने वाले हिंसा आदि प्रवृत्तियों में आसक्त रहते हैं । १३९
७५. असंवुडा अणादीयं असंवताः अनादिकं,
भमिहिंति पुणो-पुणो । भ्रमिष्यन्ति पुनः पुनः । कप्पकालमुवज्जंति
कल्पकालं उपपद्यन्ते, ठाणा आसुरकिब्बिसिय ।।१६ स्थानानि आसुरकिल्विषिकानि ॥
७५. वे असंवृत मनुष्य अनादि संसार में बार-बार भ्रमण
करेंगे। वे कल्प-परिमित काल तक'३७ आसुर और किल्विषिक स्थानों में उत्पन्न होते रहेंगे।
-त्ति बेमि ॥
-इति ब्रवीमि ॥
-ऐसा मैं कहता हूं।
चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
७६. एते जिया भो! ण सरणं
बाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुव्वसंजोगं सितकिच्चोवएसगा ॥१
एते जिताः भो! न शरणं, बालाः पंडितमानिनः । हित्वा पूर्वसंयोगं, सितकृत्योपदेशकाः
७६. हे शिष्य ! विषय और कषाय से पराजित वे
प्रावादुक' शरण नहीं हो सकते। वे अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पंडित मानते हैं। वे पूर्व संयोगों (स्वजन, धन आदि) को छोड़कर पुनः गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देते हैं।"
॥
मापदशकाः
७७. तं च भिक्खू परिणाय
विज्ज तेसु ण मुच्छए। अणक्कस्से अणवलीणे मझेण मुणि जावए ।।२
तं च भिक्षुः परिज्ञाय, विद्वान् तेषु न मूर्च्छत् । अनुत्कर्षः अनपलीनः, मध्येन मुनिः यापयेत् ॥
७७. विद्वान् भिक्षु उनके मतवादों को जानकर उनमें
मूच्छित न बने । वह मुनि अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष न दिखाए । इन दोनों से बचकर मध्यमार्ग (तटस्थ भाव) से जीवन यापन करे।
७८. सपरिग्गहा य सारंभा
इहमेगेसिमाहियं । अपरिग्गहे अणारंभे भिक्ख जाणं परिवए ॥३
सपरिग्रहाश्च सारम्भाः , इह एकेषां आहृतम् । अपरिग्रहः अनारम्भः, भिक्ष: जानन् परिव्रजेत् ।।
७८. कुछ दर्शनों में यह व्याख्यात है कि परिग्रही और
आरम्भ (पचन-पाचन आदि) करने वाले भी मुनि हो सकते हैं । किन्तु ज्ञानी २ भिक्षु अपरिग्रह और अनारंभ के पथ पर चले।
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