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सूपगो
वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम स्थान किया है ।'
४८. उपशान्त हो (जिम्बुडा )
चूर्णिकार के अनुसार निर्वृत का अर्थ है-उपशान्त वृत्तिकार ने इसका अर्थ- निर्वाण प्राप्त किया है।"
४६. निष्ठा (मोक्ष) को (ट्ठि)
५०. पंडित
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निष्ठा का अर्थ है - पर्यवसान, संपन्न होना । इसका तात्पर्य है-मोक्ष *
श्लोक २२ :
कर्मक्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को (पंडिए वीरियं)
यहां 'पंडियं वीरियं' पाठ होना चाहिए। चूर्णि में 'पंडियं वीरियं' - यह व्याख्यात है 'पंडियवीरियं'- संजमवीरियं तपोवीरियं च ।' पूर्वकृतकर्म का क्षय और नवकर्म का अकरण - निर्जरा और संवर का मुख्य साधन पंडितवीर्य है । तेवीसवें श्लोक में आए हुए 'महावीर' शब्द का संबंध भी इस पंडितवीर्य से है । पंडितवीर्य से संपन्न व्यक्ति ही महावीर होता है । ५१. निर्जरा करता है ( धुणे )
1 पुरुष
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५२. महावीर (महावीर्यवान्) पुरुष (महावीरे)
इसका संस्कृत रूप नीपाद हो सकता है है - धुण + इ । यह प्राकृत नियम के अनुसार माना जा सकता है ।
१. वृत्ति, पत्र २६८ : स्थानं तच्च तत्संयमाख्यम् ।
२. चूर्णि, पृ० २४३ : निव्वता उवसंता ।
३. वृत्ति, पत्र २६८ : निर्वृता निर्वाणमनुप्राप्ताः ।
अर्थ-विचारणा की दृष्टि से यदि 'धुनाति' मानें तो यहां एक पद में संधि हुई
श्लोक २३ :
जो महान् वीर्य से संपन्न होता है वह महावीर कहलाता है। चूर्णिकार ने महावीर का अर्थ ज्ञानी से सम्पन्न पुरुष किया है।
कृतिकार ने महावीर का अर्थ कर्मक्षय करने में समर्थ व्यक्ति किया है। किन्तु प्रकरण के अनुसार 'महावीर' का अर्थ संयमवीर्य और तपोवीर्य से संपन्न व्यक्ति होना चाहिए। पूर्व श्लोक में बतलाया गया है कि संयमवीर्य के द्वारा नए कर्मबंध का निरोध होता है और तपोवीर्य के द्वारा पूर्वकृत कर्म का क्षय होता है । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि महावीर पुरुष कर्मबन्ध के हेतुओं को क्षीण या उपशांत कर नए कर्म का बन्ध नहीं करता और आत्माभिमुखी होकर तपस्या के द्वारा पूर्वकृत कर्म को क्षीण कर देता है ।
५३. कर्म परम्परा में होने वाले (अणुपुष्यकर्ड)
अनुपूर्व का अर्थ - कर्म, हेतु या कारण है। पूर्व का अर्थ भी कर्म, हेतु या कारण होता है । पूर्ववर्ती श्लोक में 'पूर्वकृत' और प्रस्तुत श्लोक में अनुपूर्वकृत शब्द का प्रयोग किया गया है। कर्म या हेतु विद्यमान रहता है । उसके कारण निरन्तर नए-नए कर्मों का आस्रवण होता रहता है ।"
अध्ययन १५ : टिप्पण ४८-५३
४. वृत्ति, पत्र २६८ : निष्ठां पर्यवसानम् ।
५. णि, पृ० २४३ ।
६. चूर्णि, पृ० २४३ : णाणवीरियसंपण्णो ।
७. वृत्ति, पत्र २६९ : महावीरः - कर्मविदारणसहिष्णुः ।
भूणि, पृ० २४३ अपुण्यक नाम मिलावीहि कम्यहेतुहि ते अनुसमयकृतं ।
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