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________________ सूयगडो । अध्ययन १५ : टिप्पण ४४-४७ नाड़ी-संस्थान विकसित है वैसा अन्य शरीरों में नहीं है। इस शरीर में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का जैसा विकास किया जा सकता है वैसा अन्य शरीरों में नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत श्लोक में शरीर के लिए 'समुच्छ्य' (समुस्सय) शब्द का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ ही उन्नयन या उर्ध्वगमन है। श्लोक १८: ४४. श्लोक १८ जो मनुष्य इस शरीर में संबोधि का प्रयत्न नहीं करता, इस महान् क्षमता वाले शरीर को व्यर्थ ही गंवा देता हैं, वह फिर अन्यान्य शरीरों में संबोधि को प्राप्त नहीं हो सकता । मनुष्य जैसे शरीर और लेश्या वाले व्यक्तित्व का योग बहुत दुर्लभ है। धर्म का व्याकरण मनुष्य शरीरधारी या मनुष्य शरीर के उपयुक्त लेश्या वाला व्यक्ति ही कर सकता है । चूर्णिकार ने अर्चा का अर्थ लेश्या किया है और वृत्तिकार ने उसके लेश्या और शरीर दोनों अर्थ किए हैं। श्लोक १६: ४५. श्लोक १६ चूणिकार ने प्रतिपूर्ण का अर्थ यथाख्यातचारित्र'-वीतराग चेतना का अनुभव किया है। धर्म-साधना की उत्कृष्ट भूमिका वीतरागदशा है । वह राग-द्वेषात्मक दशा से सर्वथा भिन्न है। इसीलिए उसे अनीदृश- असाधारण कहा गया है। वीतरागी व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, इसलिए उसका पुनर्जन्म नहीं होता। . . प्रस्तुत श्लोक में विशुद्ध या अलौकिक धर्म की परिभाषा, उसके स्वरूप और परिणाम की चर्चा की गई है। श्लोक २० ४६. तथागत (तीर्थकर) (तथागता) तथागत का अर्थ है-वीतराग । वीतराग यथावादी तथाकारी होता है। जो अवस्था जिस रूप में घटित होती है, वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेता है । यथाख्यात चारित्र को प्राप्त होने वाला व्यक्ति तथागत ही होता है। वह प्रिय और अप्रिय संवेदनों से ऊपर उठकर केवल तथात्व, तथाता या वीतराग-चेतना के अनुभव में ही रहता है । चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) यथास्यात अवस्था को प्राप्त (२) निर्वाण को प्राप्त । तथागत का तात्पर्यार्थ हैतीर्थकर, केवली, गणधर आदि ।' श्लोक २१: ४७. सर्वश्रेष्ठ स्थान का (अणुत्तरे य ठाणे). चूर्णिकार ने स्थान का अर्थ-आयतन किया है। इसका तात्पर्य है-चरित्र-स्थान ।' ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अनेक या असंख्य स्थान होते हैं । यहां चरित्र के अनुसार स्थान का उल्लेख किया गया है। १ (क) चूणि, पृ० २४२ : समुच्छीयते इति समुच्छ्यः शरीरम्, समुच्छितानि वा ज्ञानादीनि । (ख) वृत्ति, पत्र २६७ । २ वृणि, पृ० २४२ : अर्चा लेश्या। ३. वृत्ति, पत्र २६७ : अर्चा - लेश्याऽन्तःकरणपरिणतिः .. यदि वाऽ —मनुष्य शरीरं । ४ चूणि, पृ० २४३ : पडिपुण्णं नाम सर्वतो विरतं पडिपुण्णं आहाख्यातं चारित्रम् । ५. चूणि, पृ० २४३ : तथागता अथाख्यातीभूता मोक्षगता वा। ६ वही, पृ० २४३ : च ग्रहणात केवलिनो गणधराश्च । ७. चूणि, पृ० २४३ : ठाणं आयतनं चरित्तठाणं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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