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________________ सूयगडो १ ६४ १२८. मृत्यु से युक्त माया की रचना की ( मारेण संयुया माया) प्रस्तुत चरण में वैदिक साहित्य में उल्लिखित मृत्यु की उत्पत्ति की कथा का संकेत है ब्रह्मा ने जीवाकुल सृष्टि की रचना की। पृथ्वी जीवों के भार से आक्रान्त हो गई। वह और अधिक भार वहन करने में असमर्थ थी । वह दोड़ी-दौड़ी ब्रह्मा के पास आकर बोली- 'प्रभो ! यदि सृष्टि का यही क्रम रहा तो मैं भार कैसे वहन कर सकूंगी ? यदि सब जीवित ही रहेंगे तो भार कैसे कम होगा ? उस समय परिषद् में नारद और रुद्र भी थे। ब्रह्मा ने कहा- मैं अपनी सृष्टि का विनाश कैसे कर सकता हूं ? उन्होंने विश्व प्रकाश से एक स्त्री का निर्माण किया। वह दक्षिण दिशा से उत्पन्न हुई, इसलिए उसका नाम मृत्यु रखा। उसे कहा- तुम प्राणियों का विनाश करो । यह सुनते ही मृत्यु कांप उठी। वह रोने लगी । अरे, मुझे ऐसा जघन्य कार्य करना होगा । उसकी आंखों से आंसू पड़ने लगे । ब्रह्मा ने सारे आंसू इकट्ठे कर लिए। मृत्यु ने पुनः तपस्या की । ब्रह्मा ने कहा- ये लो तुम्हारे आंसू। जितने आंसू हैं उतनी ही व्याधियां -- रोग हो जाएंगे। इनसे प्राणियों का स्वतः विनाश होगा । वह धर्म के विपरीत नहीं होगा। मृत्यु ने बात मान ली ।' चूर्णिकार ने इसका विवरण इस प्रकार दिया है— विष्णु ने सृष्टि की रचना की । अजरामर होने के कारण सारी पृथ्वी जीवाकुल हो गई । भार से आक्रान्त होकर पृथ्वी प्रजापति के सम्मुख उपस्थित हुई। प्रजापति ने प्रलय की बात सोची । सब प्रलय हो जाएगा—यह देखकर पृथ्वी भयभीत होकर कांपने लगी । प्रजापति ने उस पर अनुकंपा कर व्याधियों के साथ मृत् सर्जन किया। उसके पश्चात् धार्मिक तथा सहज-सरल प्रकृति वाले सभी मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होने लगे। सारा स्वर्ग उनके अत्यधिक भार से आक्रान्त हो गया। स्वर्ग प्रजापति के पास उपस्थित हुआ । तब प्रजापति ने मृत्यु के साथ माया का सर्जन किया । लोग माया प्रधान होने लगे। वे नरक में उत्पन्न होने लगे। प्रजापति ने स्वगं से कहा- 'लोग शास्त्रों को जानते हुए तथा अपने संशयों को नष्ट करते हुए भी, शास्त्रानुसार प्रवृत्ति नहीं करेंगे । ( इसके अभाव में वे स्वर्ग में उत्पन्न नहीं होंगे ।) इसलिए स्वर्ग ! तुम जालो अब तुम्हें कोई नहीं है।' था सूत्रकृतांग के प्रस्तुत श्लोक (१।६६ ) के अन्तिम दो चरण इस प्रकार हैं- 'मारेण संयुया माया, तेण लोए असासए ।' यह वाक्य उक्त कथानक का पूरा द्योतक नहीं है। आचार्य नागार्जुन ने इस स्थान पर जो श्लोक मान्य किया है वह अक्षरश: इस कथानक का द्योतक है । वह श्लोक इस प्रकार है भूमिकार ने 'मार' का अर्थ विष्णु किया है। विष्णु को सृष्टि का कर्ता मानने वाले कहते से एक अंश में अवतीर्ण होकर इन सभी लोकों की सृष्टि की वह सब सृष्टि का विनाशकर्ता है "अतिवडिय जीवा णं, मही विष्णवते पभुं । ततो से माया संजुत्ते, करे लोगस्सभिद्दवा ||" पूर्णिकार ने यह श्लोक 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' कह कर उद्धत किया है। वास्तव में यही श्लोक यहां होना चाहिए अध्ययन १ : टिप्पण १२८ Jain Education International १. महाभारत, द्रोणपर्व अध्याय ५३ । २. चूर्ण, पृष्ठ ४१ यदा विष्णुना सुष्टा लोकास्तदा अजरामरत्वात् तैः सर्वा एवेयं मही निरन्तरमाकीर्णा, पश्चादसावतीयभाराकांता मही प्रजापतिमुपस्थिता ।......... ..... ततस्तेन परिक्षा (जा) व स्वयं मह्या विज्ञप्तेन मा भूल्लोकः सर्व एव प्रलयं यास्यति इति भूमेरभावात् तांच लिङ्गी अनुरूपता व्याधिपुर मृत्युः सुष्टः सतस्ते धर्म पिष्ठाः प्रकृत्यार्जवयुक्ता मनुष्याः सर्व एव देवेपपद्यते स्म । ततः स्वर्गेऽपि अतिगुरुभाराक्रान्तः प्रजापतिमुपतस्थौ ततस्तेन मारेण संस्तुता माया, मारो णाम मृत्युः संस्तवो नाम साङ्गत्यम्, उक्तं हि मातृपुण्वसंथवः, मृत्यु सहगता इत्यर्थः । ततस्ते मायाबहुला मनुष्याः केचिदेकमृत्युधर्ममनुभूय नरकादिषु यथाक्रमत उपपद्यन्ते स्म । उक्तं च जानन्तः सर्वशास्त्राणि छिन्दन्तः सर्वसंशयान् । न ते तथा करिष्यन्ति गच्छ स्वर्गं न ते भयम् ॥ २. पृष्ठ ४१ ॥ . " For Private & Personal Use Only हैं कि विष्णु ने स्वयं स्वर्गलोक इसलिए 'विष्णु' को ही 'मार' www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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