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________________ सत्तम अझयणं : सातवां अध्ययन कुसीलपरिभासितं : कुशीलपरिभाषित मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ पृथ्वी च आपः अग्निश्च वायुः, १. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, तृण, वृक्ष,' तण रुक्ख बीया य तसा य पाणा। तृणानि रूक्षाः बीजानि च त्रसाश्च प्राणाः। बीज तथा त्रस प्राणी-जो अंडज, जे अंडया जे य जराउ पाणा ये अंडजा ये च जरायुजाः प्राणाः, जरायुज, संस्वेदज' और रसज'-इस संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥ संस्वेदजा ये रसजाभिधानाः ॥ नाम वाले हैं। २. एताइं कायाइं पवेइयाई एते कायाः प्रवेदिताः, २. जीवों के ये निकाय कहे गए हैं। एतेसु जाणे पडिलेह सायं । एतेषु जानीयात् प्रतिलिख सातम् । पुरुष ! तू उनके विषय में जान और एतेहि काएहि य आयदंडे एतेषु कायेषु चात्मदण्डः, उनके सुब (दुःख) को देख । जो उन पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥ पुनः पुनः विपर्यासमुपैति ॥ जीव-निकायों की हिंसा करता है, वह बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है। ३. जाईपहं अणुपरियट्टमाणे जातिपथमनपरिवर्तमानः, ३. वह जातिपथ (जन्म-मरण) में बारतसथावरेहिं विणिघायमेति । त्रसस्थावरेष विनिघातमेति । बार पर्यटन करता हुआ अस और से जाति-जाति बहुकूरकम्मे स जाति-जाति बहुकूरकर्मा, स्थावर प्राणियों में विनिघात (शारीजं कुव्वती मिज्जति तेण बाले ॥ यत् कुरुते मीयते तेन बालः ॥ रिक-मानसिक दुःख) को" प्राप्त होता है। वह जन्म-जन्म में बहुत क्रूरकर्म करता है। वह अज्ञानी जो करता है, उससे भर जाता है।" ४. अस्सि च लोए अदुवा परत्था अस्मिश्च लोके अथवा परस्तात्, ४. (वह कर्म) इस लोक में अथवा पर सयग्गसो वा तह अण्णहा वा। शताग्रसो वा तथान्यथा वा ।। लोक में, सैंकड़ों बार या एक बार, संसारमावण्ण परं परं ते संसारमापन्नाः परं परं ते, उसी रूप में या दूसरे रूप में (भोगा बंधति वेयंतिय दुणियाणि ॥ बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि । जाता है)" संसार में पर्यटन करते हुए प्राणी आगे से आगे" दुष्कृत का" बंध और वेदन करते हैं। ५.जे मायरं च पियरं च हिच्चा यो मातरं च पितरं च हित्वा, ५. जो माता-पिता को छोड़," श्रमण का समणचए अगणि समारभिज्जा। श्रमणवतः अग्नि समारभेत । व्रत ले,“अग्नि का समारंभ और " अहाहु से लोए कुसीलधम्मे अथ आहुः स लोके कुशीलधर्मा, अपने सुख के लिए प्राणिों की हिंसा भूयाइ जे हिंसति आतसाते। भूतान् यो हिनस्ति आत्मसातः ॥ करता है, वह लोक में" कुशील धर्म वाला कहा गया है। ६. उज्जालओपाण ऽतिवातएज्जा उज्ज्वालकः प्राणान् अतिपातयेत्, ६. अग्नि को जलाने वाला प्राणियों का णिव्वावओ अगणि ऽतिवातएज्जा। निर्वापकोग्निं अतिपातयेत् । वध करता है और बुझाने वाला भी तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म तस्मात् तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, उनका वध करता है। इसलिए ण पंडिते अगणि समारभिज्जा॥ न पंडितः अग्निं समारभेत ।। मेधावी" पंडित मुनि धर्म को समझ कर अग्नि का समारंभ न करे । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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