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________________ सूयगडो १ २२ अध्ययन १ : टिप्पण १२-१५ परिग्रह के लिए हिंसा होती है। जहां परिग्रह है वहां हिंसा का होना निश्चित है, इसलिए परिग्रह और हिंसा-ये दोनों परस्पर संबंधित हैं । ये एक ही वस्त्र के दो अंचल हैं । ये दोनों बन्धन के कारण हैं। यद्यपि राग और द्वेष भी बंधन के कारण हैं, किन्तु वे भी परिग्रह और हिंसा से उत्तेजित होते हैं, इसलिए परिग्रह और हिंसा बन्धन के पार्श्ववर्ती कारण बन जाते हैं । परिग्रही व्यक्ति प्राणियों के प्राणों का वियोजन करता है। इस क्रिया से वह सैंकड़ों जन्मों तक चलने वाला वैर बांधता है। इस प्रकार वह दुःख की परम्परा से कभी मुक्त नहीं हो पाता। एक दुःख से मुक्त होते ही दूसरे दुःख में फंस जाता है। चूर्णिकार ने यहां तीन उदाहरणों का उल्लेख मात्र किया है-१. शुनकवध, २. वारत्तक अमात्य ३. मधु बिन्दू ।' श्लोक ४: १२. कुल में (कुले) चूर्णिकार ने कुल शब्द से मातृपक्ष और पितृपक्ष दोनों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने राष्ट्रकूट आदि कुलों का ग्रहण किया है । १३. ममत्व रखता है (ममाती) मनुष्य माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, मित्र आदि में ममत्व रखता है। वह मानता है कि ये सब मेरे है। १४. इस प्रकार परस्पर होने वालो मूर्छा से मूच्छित होकर (अण्णमण्णेहि मच्छिए) चूर्णिकार ने यहां चतुभंगी प्रस्तुत की है(१) कोई मनुष्य माता-पिता आदि में मूच्छित, किन्तु वे इसमें मूच्छित नहीं । (२) वे इसमें मूच्छित किन्तु वह उनमें मूच्छित नहीं । (३) वह उनमें मूच्छित तथा वे भी इसमें मूच्छित । (४) शून्य-०। प्रस्तुत पद तृतीय भंग का द्योतक है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'अन्येषु अन्येषु' मानकर इस प्रकार अर्थ किया है-व्यक्ति पहले माता-पिता के प्रति ममत्व रखता है, फिर पत्नी आदि के प्रति और फिर पुत्र, पौत्र के प्रति ममत्व रखता १५. नष्ट होता रहता है (लुप्पतो) ममत्व के कारण वह मनुष्य बन्धन-मुक्ति के मार्ग पर नहीं चल सकता। ममत्व या मूर्छा बन्धन का हेतु है, (या) दुःख का हेतु है। यहां नष्ट होने का अर्थ है दुःख से मुक्त नहीं होना। १. चूणि, पृष्ठ २२ । मुनि श्री पुष्पविजयजी ने इनका स्थल-निर्देश फुट नोट नं ३ में इस प्रकार किया है-(१) पिंडनियुक्ति गाथा ६२८ तथा टीका । आवश्यकनियुक्ति गाथा १३०३, हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ७०६ अया आवश्यकचूणि, विभाग २, पत्र १९७ । २. चूणि, पृष्ठ २२ : कृले इति मातृ-पितृपक्षे । ३. वृत्ति, पत्र १४ : राष्ट्रकूटादौ कुले। ४ वृत्ति, पत्र १४ : मातृपितृभ्रातृभगिनीभार्यावयस्यादिषु ममायमिति ममत्ववान् । ५. चूणि, पृष्ठ २२ : एत्थ चउभंगो-सो तेसु मुच्छितो ण ते तत्य मुच्छिता १ (ते तत्थ मुच्छिता) ण सो तेसु २। सूत्राभिहितस्तु अण्ण मणेहिं मुच्छित्ते ति सो वि तेसु ते वि तम्मि त्ति ३। चतुर्थ : शून्य ४ । ६. वृत्ति, पत्र १४ : अन्येष्वन्येषु च मूछितो गृद्धोऽच्युपपन्नो, मनत्वबहुल इत्यर्थः, पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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