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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण ८-११ ८. दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है (अण्णं वा अणुजाणइ)
चूर्णिकार का अभिमत है कि प्रस्तुत श्लोक में स्वयं परिग्रह न रखने, दूसरों से परिग्रह न रखवाने का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस तृतीय चरण के द्वारा ये दोनों बातें गृहीत की गई हैं।' ६. दुःख से (दुक्खा)
दुःख के दो अर्थ हैं-कर्म और कर्म-विधाक । कर्म बंधन है और विपाक उसका परिणाम । परिग्रहो मनुष्य बंधन से मुक्त नहीं हो सकता । अप्राप्त परिग्रह के प्रति उसकी तीव्र आकांक्षा होती है, जो परिग्रह नष्ट हो गया उसके प्रति उसके मन में तीव्र अनुताप होता है, जो है उसके संरक्षण में पूरा आयास करता है और परिग्रह के उपभोग से कभी तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति बढ़ती है। ये सारे दुःख ही दुःख हैं। यहां बंध के अर्थ में दुःख शब्द प्रयुक्त है।'
श्लोक ३: १०. हनन करता है (तिवातए)
चूणिकार और वृत्तिकार ने मूलतः इसको 'त्रिपातयेत् मानकर व्याख्या की है। उन्होंने 'त्रि' शब्द से आयुष्य-प्राण, बल-प्राण और शरीर-प्राण अथवा मन, वचन, काया का ग्रहण किया है । वैकलिक रूप में उन्होंने यहां अकार का लोप मान कर मूल शब्द 'अतिपातयेत्' माना है।
प्रस्तुत प्रसंग में यह वैकल्पिक अर्थ ही उचित लगता है। ११. वह अपने वैर को बढ़ाता है (वरं वड्डइ अप्पणो)
चूर्णिकार ने वर की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-विरज्यते येन तद् वैरम्'-जिससे विरति की जाती है, वह वैर है। इस शब्द के अनेक अर्थ हैं
१. आठ कर्म। २. पाप। ३.वर । ४. वय॑ ।
प्रस्तुत प्रसंग में “वर" शब्द बन्धन के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रस्तुत श्लोक में हिंसा करना, हिंसा करवाना, और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना-इन तीनों का कथन है। चूणिकार का कथन है कि कुछ दार्शनिक स्वयं हिंसा नहीं करते किन्तु दूसरों से करवाते हैं तथा अनुमोदन भी करते हैं। कुछ दार्शनिक स्वयं हिंसा करते हैं, दूसरों से नहीं करवाते । कुछ दार्शनिक तीनों प्रकार से हिंसा करते हैं। १. चूणि, पृष्ठ २२ : सूचनामात्रं सूत्रं इति कृत्वा स्वयङ्करण कारवणानि अणुमतीए गिहिताई। २. (क) चूणि, पृष्ठ २२ : दुक्खं कर्म तद्विपाकश्च ।
(ख) वृत्ति, पत्र १३ : दुःखम् -अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वा असातोदयादिरूपं तस्मात् । ३. (क) चूणि, पृष्ठ २२ । (ख) वृत्ति, पत्र १३ : परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु काझाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे चातृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मकाद्वन्धनान्न
मुच्यत इति । ४. (क) चूणि, पृष्ठ २२ : तिवायए त्ति आयुर्बलशरीरप्राणेभ्यो त्रिभ्यः पातयतीति त्रिपातयति, त्रिभ्यो वा मनो-वाक्-काययोगेभ्यः
पातयति, करणभूतैर्वा मनो-वाक्-काययोगः पातयतीति त्रिपातयति । अतिपातयतीति वा वक्तव्यम्, अकारलोपं कृत्वाऽपदिश्यते
तिपातयति। (ख) वृत्ति, पत्र १४ । ५. चूणि, पृष्ठ २२ : विरज्यते येन तद् वैरम् । ६. वही, पृष्ठ २२ : अयवा वेरमिति अटप्पगारं कम्मं । उक्तं हि-पावे वेरे वज्जेति ता वेरं । ७. वही, पृष्ठ २२: कश्चित् स्वयं त्रिविधेऽपि करणे वर्तते, कश्चिद् द्विविधे, कश्चिदेकविधे।
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