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सूयगडो १
२०
(१) धन और परिवार में अत्राण- दर्शन और ( २ ) जीवन का मृत्यु की दिशा में संधावन ।
व्यवहार के धरातल पर मनुष्य का पुरुषार्थं दुःख की निवृत्ति और सुख की उपलब्धि के लिए होता है । अध्यात्म के धरातल पर मनुष्य बंधन की निवृत्ति और मोक्ष की उपलब्धि के लिए पुरुषार्थ करता है। बंधन दुःख है और मोक्ष सुख है। अतः दुःख और सुख ही अध्यात्म की भाषा में बंध और मोक्ष - इन शब्दों द्वारा प्रतिपादित हुए हैं।
श्लोक २ :
५. श्लोक २ ।
कर्म-बंध के मुख्य हेतु दो हैं- आरंभ और परिग्रह । राग-द्वेष, मोह आदि भी कर्म-बंध के हेतु हैं किन्तु वे भी आरंभ और परिग्रह के बिना नहीं होते । अतः मुख्यतः इन दो हेतुओं- आरंभ और परिग्रह का ही ग्रहण किया गया है। इन दोनों में भी परिग्रह गुरुतर कारण है । परिग्रह के लिए ही आरंभ किया जाता है। अत: सबसे पहले सूत्रकार प्रस्तुत श्लोक में परिग्रह का निर्देश करते हैं । प्राणातिपात आदि पांच आस्रवों में भी परिग्रह गुरुतर माना गया है, अतः उसका उल्लेख पहले हुआ है—यह चूर्णिकार का अभिमत है ।"
वृत्तिकार का अभिमत है कि सभी प्रकार के आरंभ कर्मों के उपादान कारण हैं। ये आरंभ प्रायश: 'मैं' और 'मेरा' इससे उद्भूत होते हैं । 'मैं' और 'मेरा' परिग्रह का द्योतक है । अतः प्रस्तुत श्लोक में सबसे पहले परिग्रह का निर्देश किया गया है।
अध्ययन १ टिप्पण ५-७ :
चूर्ण और वृत्ति के अनुसार परिग्रह बंध का हेतु है—यह प्रमाणित होता है । यदि परिग्रह को बंध का हेतु न माना जाए तो 'किमाह बंधणं वीरे' - इस प्रश्न का उत्तर मूल पाठ में उपलब्ध नहीं होता । परिग्रह बंधन है - यह स्वीकार करने पर ही उस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत श्लोक में मिल जाता है ।
६. चेतन ( चित्तमंतं)
चित्त के अनेक अर्थ हैं—जीव, चेतना, उपयोग, ज्ञान' ज्ञानवान् । विशेष विवरण के लिए देखें-- दसवेआलियं पृ० १२४ ७. तनिक भी (किसामवि)
चितवत् का अर्थ है - जीव के लक्षणों से युक्त, चेतनावान् अथवा १२५ ।
कृश, तनु और तुच्छ —ये एकार्थक शब्द हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसे परिग्रह का विशेषण मानकर इसका अर्थतृषमात्र परिग्रह किया है। हमने इसको ममत्व या परिग्रह-बुद्धि के साथ जोड़कर इसका अर्थ-निक भी किया है। प्रस्तुत शब्द 'किसा' में आकार लामिक है वृतिकार ने बैकल्पिक रूप में कस' का अर्वपरिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि से जीव का गमन परिणाम — किया है। चूर्णिकार ने 'किसा' का अर्थ इच्छामात्र या प्रार्थना या कषाय किया है। वैभव न होने पर भी कषाय की बुद्धि से ग्रहण किए जाने वाले वस्त्र पात्र भी परिग्रह बन जाते हैं-यह उनका अभिमत है । "
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१. सूयगडो, १1१।५ : विसं सोयरिया चैव संधाति जीवितं चेव, २. वृषि पृष्ठ २१, २२ रम्य परिग्रहौ बन्धहेतु" [ ] येsपि च रागादयः ते ऽपि नाऽऽरम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति तेन तावेव वा गरीयांसाविती कृत्वा सूत्रेणैवोपनिबद्धो, तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भः क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमपदिश्यते, पंचण्हं वा पाणातिवातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुअतरो त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो बुच्चति । २. वृत्ति १३ सर्वारम्भाः कमपादानस्याः प्रायश आरमात्मीयपोत्याना इतिकृत्वाऽऽडी परिग्रहमेव दर्शितवान् । ४. दशवेकालिक, जिनदास चूर्णि, पृष्ठ १३५ : चित्तं जीवो भण्णइ.. .... चेयणा । ५. वृति पत्र १३ चित्तम् उपयोगी ज्ञानं ।
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६. (क) चूर्णि, पृष्ठ २२ : कृशं तनु तुच्छ मित्यनर्थान्तरम्, तृणतुषमात्रमपि ।
(ख) वृत्ति, पत्र १३ : कृशमपि स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः ।
७. वृत्ति, पत्र १३ : यदि वा कसनं कसः - परिग्रहग्रहणबुद्ध्या जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत् ।
८. चूर्ण, पृष्ठ २२ : अथवा कषायमपीति इच्छामात्रं प्रार्थना अथवा कषायतः असत्यपि विभवे कषायतः परिगृह्यमाणानि वस्त्र पात्राणि परिप्रहो भवति ।
सव्वमेयं ण ताणइ । कम्मणा उतिउट्टइ ॥
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