________________
सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण १६-१६
श्लोक ५: १६. भाई और बहिन (सोयरिया)
इसका संस्कृत रूप है 'सोदर्याः' । इससे वे व्यक्ति गृहीत हैं जो नालबद्ध होते हैं, एक ही उदर से उत्पन्न होते हैं, जैसे-भाईबहिन ।' १७. ये सब त्राण नहीं दे सकते (सव्वमेयं ण ताणइ)
घन, भाई-बहिन आदि त्राण नहीं दे सकते। चूणिकार ने यहां 'पालक पादच्छेद' के उदाहरण की ओर संकेत किया है।' आवश्यक चूणि में यह उदाहरण 'सुलस' के नाम से निर्दिष्ट है। संभव है पालक का ही दूसरा नाम सुलस हो । बह उदाहरण संक्षेप में इस प्रकार है
सुलस कालसौकरिक का पुत्र था। कालसौकरिक मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। पारिवारिक लोगों ने सुलस को पिता का उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहा। सुलस ने इन्कार कर दिया। उसने कहा-पिता प्रतिदिन पांचसो भैसों को मारता था। मैं यह कार्य नहीं कर सकता। हिंसा नरक का कारण है। पारिवारिक लोगों ने कहा-हम सब तुम्हारे पाप का विभाग ले लेंगे। तुम केवल एक भैसे को मारना, शेष हम सब कर लेंगे। शुभ मुहूर्त में पुत्र को अभिषिक्त करता था। एक भैसे को सझाया गया। उसके गले में लाल कणेर की माला डानी गई और कुल्हाड़ी पर लाल चन्दन का लेप किया गया। कुल्हाड़ी को सुलस के हाथ में देकर पारिवारिक लोगों ने कहा-'तुम भैंसे पर प्रहार कर अपने व्यवसाय का प्रारंभ करो।' सुलस ने उस कुल्हाड़ी का प्रहार अपने पैरों पर किया । वह मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। सचेत होने पर उसने अपने स्वजनों से कहा-मेरा यह दुःख आप बंटाइए। उन्होंने कहा-दुःख नहीं बांटा जा सकता । हम इसका विभाग लेने में असमर्थ हैं। सुलस ने कहा-फिर आप सब ने यह कैसे कहा कि पांच सौ भैसों के मारने के पाप का हम विभाग कर लेंगे। कोई भी व्यक्ति, चाहे फिर वह अपना सगा भाई ही क्यों न हो, दुःख को नहीं बंटा सकता ।' १८. जोवन मृत्यु को ओर दौड़ रहा है (संधाति जीवितं चेव)
जीवन का जो एक-एक क्षण बीत रहा है, उससे मृत्यु-काल सन्निकट होता है। एक-एक क्षण के आयुष्य का बीतने का अर्थ ही है-मृत्यु की ओर बढ़ना । इसी प्रकार जीवन की भांति काम भोग भी विनाश की ओर ही बढ़ते हैं। वे निरंतर विनष्ट होते रहते हैं । जीवन और कामभोग दोनों अनित्य हैं । १६. कर्म के बन्धन को तोड़ डालता है (कम्मगा उ तिउदइ)
जब व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है कि इस संसार में कोई भी त्राण नहीं दे सकता और यह जीवन निरंतर मृत्यु की ओर दौड़ा जा रहा है, तब वह कर्म के बंधन को तोड़ने में सफल हो जाता है।
कर्म बंधन है। उसके परोक्ष हेतु हैं—राग और द्वेष तथा प्रत्यक्ष हेतु हैं-परिग्रह और हिंसा । कारण को मिटाए बिना कार्य को नहीं मिटाया जा सकता । बंधन के कारणों को तोड़े बिना बंधन को नहीं तोड़ा जा सकता। परिग्रह और हिंसा की मूर्छा को तोड़ना ही वह सत्य है जिसे जान लेने पर बंधन को तोड़ा जा सकता है।
प्रस्तुत श्लोक में अध्यात्म चेतना के जागरण के आधारभूत दो तत्त्व बतलाए गएहैं -१. धन और परिवार में त्राण देने की क्षमता का अभाव २. जीवन की नश्वरता और तीसरा आधारभूत तत्त्व है-आत्मा की परिणामि-नित्यता। उसकी चर्चा इसी अध्ययन के सातवें श्लोक से प्रारंभ होती है और अड़सठवें श्लोक में उसका उपसंहार होता है । १. (क) चूणि, पृष्ठ २३ : सोदरिया णाम भाता भगिणी णालबद्धा।
(ख) वृत्ति, पत्र १४ । सोदर्या भ्रातृभगिन्यादयः । २. चूणि, पृष्ठ २३ : पालकपादच्छेदोदाहरणं । ३. आवश्यक चूणि, उत्तर भाग, पृष्ठ १६६, १७० । ४. चूणि, पृ २३: समस्तं धाति संधाति मरणाय धावति, जीवनवत् कामभोगाऽपि हि अग्नि-चौरादिविनाशाय वाधंति (धावंति) । एवं
जीवितं कामभागांश्चानित्यात्मक जानीहि ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org