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gist १
उत्तर में बोधिसत्व ने कहा
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पुत्तदारम्मिने वा देति दानं असन्तो
मुज्जमानोदि सोन पापेन उपलिप्यति ॥
- यदि कोई व्यक्ति अपने पुत्र या स्त्री को मारकर भी उनके मांस का दान करता है तो प्रज्ञावान भिक्षु उसे खाता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता ।'
श्लोक ५६ :
१०८. जो मन से ...... कुशल चित्त नहीं होता (मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसि ण विज्जइ )
चूर्णिकार के अनुसार इन दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है
सबसे पहले व्यक्ति के मन में प्राणियों के प्रति निर्दयता उत्पन्न होती है । फिर यह प्रतिपादन होता है कि जो हमारे भोजन के लिए दूसरा व्यक्ति जीवों का वध करता है, उसमें कोई दोष नहीं है । जो व्यक्ति उद्दिष्ट भोजन का आहार करते हैं वे अप्रदुष्ट होने पर भी उनका मन द्वेषयुक्त ही होता है । वे निरंतर संघभक्त तथा मत्स्य-मांस का भोजन करने में मूच्छित होते हैं तथा इन्द्रियों के व्यापार में नित्य अभिनिविष्ट होते हैं, अतः उनके चित्त नहीं होता । सूत्रकार ने 'चित्त नहीं होता' ऐसा प्रयोग किया है । इसका तात्पर्य है कि उनके कुशल चित्त नहीं होता । अशुभ चित्त या व्याकुल चित्त को अ-चित्त ही कहा जाता है । व्यवहार में भी देखा जाता है कि जो व्याकुल चित्त होता है वह कहता है- मेरे चित्त है या नहीं ।
अध्ययन १ टिप्पण १०८ १०६
(अणवज्जं अतहं)
जो हिंसा आदि आरंभ में प्रवृत्त होते हैं, उनके अनवद्य योग ( कर्मोपचय का अभाव ) नही होता । जो लोग आरंभ में प्रवृत्त व्यक्ति के अनवद्य योग मानते हैं, वह अतथ्य है ।
कर्म बंध के हेतुओं से निवृत्त (संबुडचारिणो )
संवृत का अर्थ है—संयम का उपक्रम । जो संयम का उपक्रम करता है वह संवृतचारी होता है । अतंबूतचारी प्रद्वेष, निव मात्सर्य आदि आश्रयों में वर्तमान रहने के कारण तद् अनुरूप कर्म बांधते हैं।'
इलोक ५७ :
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१०६. इन दृष्टियों को स्वीकार कर (इब्वेवाह विट्ठीहि )
आगम युग में दर्शन के वर्ष में 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग प्रमुखता से होता था पूर्ववर्ती श्लोकों में नाना सिद्धान्त निरूपित हैं। उन्हीं के लिए यहां दृष्टि शब्द का प्रयोग किया गया है । दृष्टि का अर्थ नय होता है । जो दार्शनिक एक ही दृष्टि या नय का आग्रह करते थे, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहा जाता था । ४१ और ५६ वें श्लोक में मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रयोग मिलता है ।
चूर्णिकार ने इस पद के द्वारा पूर्वोक्त नियतिवादी आदि की दृष्टियों को स्वीकार किया है । "
१. जातक अट्ठकथा, सं० २४६, तेलीवाद जातक ।
२. चूर्ण, पृष्ठ ३८ : पूर्व हि सत्वेषु निर्घृणतोत्पद्यते, पश्चादपदिश्यते -पः परः जीववहं करोति न तत्र दोषोऽस्तीति । ते हि पुण्यकामकाः मातुरपि स्तनं खित्वा तेभ्यो ददति । अप्रदुष्टा अपि मनसा दुष्टा एव मन्तव्याः य उद्देशककृतं भुञ्जते । एवं तेषां भादिषु मत्स्याद्यसनेषु च मूतानां प्रामादिव्यापारेषु च नित्याभिनिविष्टानां कुशलचितं न विद्यते
संध्या
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वा तदचितमेव यथा अशीलवती लोकेऽपि दृष्टम्याकुलचिता भवति (भगत) अविचितओ हं ।
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२. वह पृष्ठ ३८ तचारिणो नाम संवृतः संयमोपमः तच्चरणशीलः संवृतचारी ।
४. वही, पृष्ठ २८ नित्यमेव हि ते असंवुडचारिणो बन्धषु वर्तन्ते हि तत्त्रदोषनिव मात्सर्वादिभ्यश्रवद्वारेषु यथास्वं वर्तमानास्तदनुरूपमेव च यचापरिणामं कर्म नन्ति ।
५. पूर्णि, पृष्ठ २९ एताहि ति इहाध्याये वा अपविष्टा निवतिकायाः।
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