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सूयगड १
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८८. पूजा और लावा का कामी हो ( धर्मकया न करे) (ण पूपणं चैव सिलोय कामे)
पूजा का अर्थ है - वस्त्र, पात्र, आदि का लाभ । श्लोक का अर्थ है - श्लाघा, कीर्ति, आत्मप्रशंसा, यश आदि । मुनि पूजा और श्लाधा प्राप्त करने के लिए धर्मकथा न करे । वह यह कामना न करे कि धर्मकथा करने से मुझे अच्छे वस्त्र, पात्र, अन्न-पान आदि मिलेगा । लोग यह कहने लगेंगे कि यह मुनि अर्थ का विस्तार करने में निपुण है । हमने इस जैसे अर्थ का विस्तार करने वाला नहीं देखा । यह बहुत मिष्टभाषी है ।'
८. किसी का प्रिय या अप्रिय न करे ( पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा )
अध्ययन १३ टिप्पण८८-६०
:
इसके अनेक अर्थ हैं ---
१. मुनि सावद्य उपकार के द्वारा किसी गृहस्थ का न प्रिय करे और न अप्रिय करे ।
२. यह मेरा प्रिय है, यह मेरा अप्रिय है— मुनि ऐसा न माने ।
३. जो जिसके लिए प्रिय हो, उसको चुगली या विद्वेष के द्वारा अप्रिय न बनाए ।"
४. योगा के लिए जो प्रिय (राजकथा आदि) हो तथा जो अभिय (इष्टदेव की निन्दा आदि) हो, वैसा कवन न करे ।
मुनि समता की साधना करता है। वह किसी के प्रति अनुरक्त और किसी के प्रति द्विष्ट नहीं होता । वह राग-द्वेष से दूर रहता है। इसलिए यह उपयुक्त है कि वह न किसी का प्रिय करे और न किसी का अप्रिय करे। प्रियता और अप्रियता राग-द्वेष के द्योतक हैं। जो एक के लिए प्रिय होती है वह दूसरे के लिए अप्रिय भी हो सकती है । जो एक के लिए अप्रिय होती है वह दूसरे के लिए प्रिय भी हो सकती है। समता की आराधना करने वाला मुनि मध्यस्थ रहे, न कहीं प्रियता करे और न कहीं अप्रियता करे ।
वह प्रियता और अप्रियता पैदा करने के लिए धर्मकथा न करे। वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर अरक्तद्विष्ट होकर दर्शन आदि यथार्थ धर्म का उपदेश करे ।"
सम्यग्
१०. अनवों का (अगट्ठे )
चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अशोभन या संयम में बाधा उपस्थित करने वाला कार्य । इसका तात्पर्यार्थ है
अर्थदण्ड |
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-पूजा, सत्कार और लाभ के अभिप्राय से किया जाने वाला तथा दूसरे पर दोषारोपण
रूप अनर्थ ।'
प्रकरण की दृष्टि से यहां अनर्थ का अर्थ है - अप्रयोजन ।
इसी आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में बताया है कि मुनि अन्न प्राप्त करने के लिए, पान प्राप्त करने के लिए, वसति प्राप्त करने के लिए, शय्या प्राप्त करने के लिए तथा विभिन्न प्रकार के कामभोगों को प्राप्त करने के लिए धर्म देशना न करे। ये धर्म१. (क) चूर्णि, पृ० २२६ ण पूया मे भविस्सती, सिलोगो णाम जसोकित्ती, यथा नानेन तुल्य प्रज्ञप्तविस्तरो कथको मृष्टवाक्य इत्यादि ।
(ख) वृत्ति, पत्र २४६ : साधुदेशनां विदधानो न पूजनं वस्त्रपात्रादिलाभ रूपमभिकाङ्क्षन्नापि श्लोकं श्लाघां कीर्तिम् - आत्मप्रशंसां
कामद
२ णि, पृ० २२६ : प्रियं च न कुर्यादसंयतानां अन्यतरेण सावद्योपकारेण वा अप्रियम् । अथवा ममायं प्रियः अयं चाप्रिय इति, अथवा यो यस्य प्रियः स न तस्य पिशुनवचन- विद्वेषणादिभिः कुर्यात् कर्मकथाम् ।
३. वृत्ति, पत्र २४६ : तथा श्रोतुर्यत्प्रियं राजकथाविकथादिकं छलितकथादिकं च तथाऽप्रियं च तत्समाश्रितदेवता विशेष निन्दादिकं न कथयेत् ।
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४. वृत्ति, पत्र २४६ ॥
५. चूर्ण, पृ० २२६ : अणट्ठे अशोभना अर्थाः अनर्थाः संयमोपरोधकृद् अर्थोऽनर्थः, अनर्थदण्ड इत्यर्थः ।
६. वृत्ति, पत्र २४६ : अनर्थान् पूजासत्कारलाभाभिप्रायेण स्वकृतान् परदूषणतया च परकृतान् ।
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