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________________ सूयगडो १ प्रध्ययन १३ : टिप्पण८४-८७ ८४. तत्त्व को जानकर (विज्जं गहाय) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विद्या को जान कर किया है। वृत्तिकार ने 'विज्ज' का अर्थ-विद्वान्, धर्म-देशना देने में निपुण और 'गहाय' का अर्थ-दूसरे के अभिप्राय को सम्यग जानकर-किया है। ८५. चल-अचल (तसथावरेह) हमने प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में इनका अर्थ-चल, अचल पदार्थ किया है। प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार सर्वथा भिन्न मत रखते हैं । चूर्णिकार के अनुसार धीर मुनि किसी पुरुष को उसके व्यवसाय से संबोधित न करे। (अथवा उस व्यवसाय के द्वारा उसकी निन्दा न करे ।) वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर उसके मिथ्यात्व का सर्वथा अपनयन करे। रूप आदि इन्द्रिय-विषय भयावह होते हैं जो इनमें आसक्त होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। (इन इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न दोषों को) जानकर मुनि बस-स्थावर प्राणियों के रक्षण करने वाले धर्म का कथन करे। वृत्तिकार के अनुसार धीर मुनि श्रोताओं के अनुष्ठान और अभिप्राय को जानकर (धर्मोपदेश करे) तथा उनके पापभाव (मिथ्यात्व) को सर्वथा दर करे । स्त्रियों के रूप भयावह होते हैं । (जो इनमें आसक्त होते हैं), वे धर्म से च्युत हो जाते हैं। विद्वान् मुनि दूसरे के अभिप्राय को जानकर त्रस और स्थावर प्राणियों के लिए हितकर धर्म का उपदेश दे । चुणिकार और वृत्तिकार द्वारा कृत अर्थाभिव्यक्ति स्पष्ट नहीं है। उसका पौर्वापर्य भी सम्यग घटित नहीं होता। ८६. रूपों (आकृत्तियों) में (रूवेहि) चुणिकार का कथन है कि इन्द्रियों के पांच विषयों में रूप प्रधान है। उसमें भी स्त्रीरूप सबसे प्रधान है। वृत्तिकार ने नयन और मन को लुभाने वाले स्त्रियों के अंग, प्रत्यंग, अर्द्ध-कटाक्ष, निरीक्षण आदि को 'रूप' माना है।" हमने इसका अर्थ 'मूर्त पदार्थ' किया है। श्लोक २२: ८७. निर्मल (अणाइले) अनाविल का अर्थ है-निर्मल, पवित्र । चूर्णिकार ने इसका अर्थ अनातुर किया है । जो क्षुधा आदि परिषहों से अनातुर होता है, वह अनाविल कहलाता है' वृत्तिकार ने अनाकुल का अर्थ - सूत्र के अर्थ से दूर न जाने वाला किया है।' १. चूणि, पृ० २२६ : विद्यां गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः : २. वृत्ति, पत्र २४६ : 'विद्वान्'-पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञो गृहीत्वा पराभिप्रायम् । ३. चूर्णि, पृ० २२६ । ४. वृत्ति, पत्र २४६ । ५ चूणि, पृ० २२६ : रूपं सर्वप्रधानं विषयाणाम, तत्रापि स्त्रीरूपादि। ६ वृत्ति, पत्र २४६ : 'रूपः नयनमनोहारिभिः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गार्द्धकटाक्षनिरीक्षणादिभिः । ७. चूर्णि, पृ० २२६ : अणाइलो णाम अनातुरः क्षुधादिभिः परीषहैः । ८. वृत्ति, पत्र २४६ : अनाकुलः सूत्रार्थादनुत्तरन् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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