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________________ सूयगडो अध्ययन १३ : टिप्पण ८०-८३ वृत्तिकार के अनुसार--- सबसे पहले धर्मकथा करने वाला मुनि यह जाने कि परिषद् में उपस्थित पुरुष कौन है ? यह किस देवता विशेष को मानने वाला है ? यह किस दर्शन को मानने वाला है ? इसके मन में किसी मत विशेष के प्रति आग्रह है या नहीं? इन सारी बातों को अच्छी तरह जानकर ही उसे धर्मकथा करनी चाहिए। जो व्यक्ति इन बातों को जाने बिना धर्मोपदेश करता है और दूसरे के मत पर, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, आक्षेपकारी वचन कह देता है, उसको अनेक प्रकार की विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं। कभी-कभी उसे मृत्यु का सामना भी करना पड़ सकता है। अत: उसे दूसरे के अभिप्राय को जानकर, सत्य की उपलब्धि कराने मात्र के लिए, तत्त्वज्ञान कराने के लिए, धर्मकथा करनी चाहिए।' श्लोक २१: ८०. धीर पुरुष (धोरे) विषय और कषायों से अक्षोभ्य या उत्तम बुद्धि सम्पन्न पुरुष 'धीर' कहलाता है। ८१. कर्म (कम्म) चूर्णिकार के अनुसार कर्म का अर्थ है-आजीविका का साधन, व्यवसाय । वे किसी को उसके व्यवसाय से संबोधित करने या उस व्यवसाय के आधार पर निन्दा करने का निषेध करते हैं। जैसे-हे जलाहा, हे चर्मकार ! आदि । अरे, तुम तो चर्मकार हो, तुम तो जुलाहे हो---आदि-आदि ।' वृत्तिकार ने कर्म के दो अर्थ किए हैं१. अनुष्ठान । २. गुरु-लघु कर्म का भाव। ८२. छंद (रुचि) का (छंद) चूर्णिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं१. अभिप्राय, रुचि। २. जिससे सुनने वाला प्रभावित हो वह अभिप्राय या वचन । जैसे-कोई व्यक्ति शृगार रस से, कोई वैराग्य रस से, और कोई दूसरे रस से प्रभावित होता है। धर्मकथी मुनि उसका विवेचन करे। ३. श्रोता कौन है ? वह किस दर्शन का अनुयायी है ?' यह जानना। ८३. आत्मीयभाव (आतभावं) चूर्णिकार ने आत्मभाव से मिथ्यात्व या अविरति का ग्रहण किया है । ये अप्रशस्त आत्मभाव हैं।' वृत्तिकार ने अनादि जन्मों में अभ्यस्त मिथ्यात्व आदि को अथवा विषयासक्ति को आत्मभाव कहा है।' उन्होंने मूलपाठ 'पापभावं' मानकर 'आतभावं' को पाठान्तर माना है। 'पापभाव' का अर्थ है-अशुद्ध अन्तःकरण ।' हमने इसका अर्थ बाह्य पदार्थों में होने वाले आत्मीयभाव अर्थात् विषयानुरक्ति किया है। १. वृत्ति, पत्र २४५। २. वृत्ति, पत्र २४६ : 'धीरा-अक्षोभ्यः सदबुद्ध्यलंकृतो वा । ३. चूणि, पृ० २२६ : येन कर्मणा जीवति न तेनैनं परिभाषेत्, यथा हे कोलिक !,न चैवगं तेन कर्मणा निन्वयेविति, यथा-चर्मकारो भवान् कोलिको वा, मा सो उड्डष्ट्ठो गं गेण्हेज्ज । ४. वृत्ति, पत्र २४६ : 'कर्म'-अनुष्ठानं गुरुलघुकर्मभावं वा। ५. चूणि, पृ० २२६ : छन्दं चास्य जाणेज्ज तद्यथा-वारुणो मृदुर्वा । अथवा छन्द इति येनाऽक्षिप्यते वैराग्येन शृंगारेण वा, तथा के अयं पुरिसे? कं वा दरिसणमभिप्पसण्णे ? ६. चूणि, पृ. २२६ : आतभावो णाम मिथ्यात्वं अविरतिर्वा, ततो अप्रशस्तावात्मभावात् । ७ वृत्ति, पत्र २४६ : 'आत्मभावः; अनाविभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिकस्तमपनयेत, यदि बाऽऽत्मभावो-विषयगृध्नुता। ८. वृत्ति, पत्र २४६ : पापभावम्'-अशुद्धमन्तःकरणम्..."आयमाव' ति क्वचित्पाठः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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