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________________ सूयगडो १ देशना के अनर्थ हैं ।" XX? श्लोक २३ : १. हिंसा का (दंड) चूर्णिकार ने इसका अर्थ घात किया है । वृत्तिकार ने प्राणव्यपरोपण की विधि को दंड माना है। २. परित्याग करे ( निहाय) वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'निधाय' कर इसका अर्थ 'परित्यज्य' किया है। निधाय का अर्थ परित्यज्य (त्याग करके) कैसे हो सकता है ? इसका संस्कृत रूप 'निहाय होना चाहिए जहां त्यागे' धातु से यह रूप निष्पन्न होता है। इसका अर्थ होगा-त्याग करके । अध्ययन १३ टिप्पण २१-१४ प्राचीन प्रयोगों में 'हकार' का धकार के रूप में वर्ण परिवर्तन मिलता है। इसी सूत्र के १४। १ में चूर्णिकार ने 'विहाय' के स्थान पर 'विधाय' पाठ स्वीकृत कर उसका अर्थ 'विशेषेण हित्वा' किया है। १३. (जो जीवियं णो मरणाहिले) मुनि जीने और मरने की आकांक्षा न रखे । जीने कीं आकांक्षा राग है और मरने की आकांक्षा द्वेष है। मुनि दोनों की वांछा न करे । वह केवल संयम यात्रा की आकांक्षा करे । चूर्णिकार ने असंयममय जीवन और परीषहों के उदय से मरण की वाञ्छा न करे – यह अर्थ किया है ।" वृत्तिकार ने इस भावना का विस्तार किया है—मुनि असंयम जीवन की इच्छा न करे तथा स्थावर और जंगम प्राणियों की घात कर लंबे जीवन की बांछा न करे। मुनि परीषहों से पीडित होकर तथा अन्यान्य वेदनाओं से दुःखित होकर, उन दुःखों को न सह सकने के कारण जल में डूब कर आग में जलकर अथवा हिंसक प्राणी से अपना वध कराकर मरने की वांछा न करे । १४. वलय (संसारचक्र) से ( वलया) Jain Education International पूर्णिकार ने इसका अर्थ मावा और वृतिकार ने माया तथा मोहनीय कर्म किया है।" प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ संसार-चक्र उपयुक्त लगता है । १. सूयगडो २।१।६९ : णो अण्णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । जो पाणस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा । णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । जो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा णो अर्णोस विरूवरूवाणं कामभोगाणं हे माहवे। २. चूर्ण, पृ० २२६ : बंडो नाम घातः । ३. वृत्ति, पत्र २४६ : वण्ड्यन्ते प्राणिनो येन स दण्ड: प्राणव्यपरोपणविधिः । ४. वृत्ति पत्र २४६ : निधाय परित्यज्य । ५. चूर्ण, पृ० २२६ । असंजमजीवितं परीषहोदयाद्वा मरणं । ६.२४६मजीवितं दीर्घायुकं का स्वाद निकाशी स्वा (जे) व् वरीवजितो वेदनासमुधात (समय) हृतो वा तद्वेषनाम (भ) सहमानो जनतापाविजयन नापि मरणामिका स्यात् । ७. चूर्णि, पृ० २२६ : वलया - माया । ८. वृत्ति, पत्र २४७ : वलयेन मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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