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सूयगडो १
मध्ययन १४ : टिप्पण १४-१८ १४. साधु के (दवियस्स)
चूर्णिकार ने इसको तीर्थंकर का वाचक माना है।' वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. मुक्तिगमन योग्य साधु । २. रागद्वेष रहित व्यक्ति ।
३. सर्वज्ञ । १५. वित्त (या वृत्त) पर (वित्तं)
इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं-वित्त या वृत्त । वित्त का अर्थ है-ज्ञान । इसका वैकल्पिक अर्थ है -ज्ञान, दर्शन और चारित्र । वृत्त का अर्थ है-अनुष्ठान ।'
इस पूरे चरण का तात्पर्य यह होगा
जो मुनि आचार्य के पास रहता है, आचार्य समय-समय पर उसके ज्ञान-दर्शन और चारित्र को प्रकाशित करते हैं। वह मुनि वादी है, धर्मकथी है, विशुद्ध चारित्र वाला है या तपस्वी है-इसको प्रकाशित करते हैं, उसे इस ओर बढ़ने में प्रेरित करते हैं ।
जब मुनि इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर पथ-च्युत होने लगता है या कषाय के वशीभूत हो जाता है तब आचार्य उस पर अनुशासन करते हुए कहते हैं-ऐसा मत करो।' १६. अनुशासन करता है (ओभासमाणे)
चूर्णिकार ने 'अवभाष' के दो अर्थ किए है-प्रकाशित करना, अनुशासन करना।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-उद्भासित करता हुआ, अनुष्ठान का सम्यग् पालन करता हुआ-किया है।" १७. आशुप्रज्ञ शिष्य (आसुपण्णो)
इसका अर्थ है-शीघ्र प्रज्ञा वाला अर्थात् प्रतिक्षण जागरूक ।'
प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के ५११ में आशुप्रज्ञ शब्द प्रयुक्त है। वहां चूर्णिकार ने इसका अर्थ-केवली, तीर्थंकर' और वृत्तिकार ने पटुप्रज्ञा वाला, सदसद्विवेकज्ञ किया है।"
___ साधना की दृष्टि से प्रतिक्षण जागरूक व्यक्ति आशुप्रज्ञ होता है। यह अप्रमत्त अवस्था का सूचक है । तात्पर्य में यह वीतराग अवस्था का द्योतक है।
श्लोक ५: १६. श्लोक ५:
चूणिकार ने प्रस्तुत श्लोक को छठा श्लोक और छठे श्लोक को पांचवा श्लोक मानकर व्याख्या की है। १. चूणि, पृ० २२६ : ववियस्स ...'णाम द्वेषरहितत्वात् तीर्थकर एव भगवान् । २ वृत्ति, पत्र २५० : द्रव्यस्य ---मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य वा । ३ चूणि, पृ० २२६ : ज्ञानधना हि साधवः इति कृत्वा वित्तं ज्ञानमेव, ज्ञानवर्शनचारित्राणि वा। ४. वृति, पत्र २५० : वृत्तम् अनुष्ठानम् । ५. चूणि, पृ० २२६ । ६. चूणि, पृ० २२६ : ... " 'प्रकाशयति-वादी वा धम्मकथी वा विशुद्धचरित्रो वा तपस्वी वा। ७. वृत्ति, पत्र २५० : 'अवभासयन्'-उद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् । ८ चूणि, पृ० २२६ : आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षण-लव-मुहूर्तप्रतिबुद्धयमानता। ६. चूणि, पृ० ४०३ : आसुपण्णे-आसु प्रज्ञा यस्य भवति स आसुप्रज्ञो, केवली तीर्थकर एव । १०. वृत्ति, पत्र ११६ : आशुप्रज्ञ: पटुप्रज्ञः सदसद्विवेकज्ञः ।
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