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________________ सूयगडो १ मध्ययन १४ : टिप्पण १२-१३ किया है। आचार्य के निकट रहना गुरुकुलवास है। जो मुनि अन्यत्र रहता हुआ भी गुरु के निर्देशों का पालन करता है वह भी गुरुकुलवासी माना जाता है। जो गुरु के अत्यन्त निकट रहकर भी उनके निर्देशों का पालन नहीं करता, व गुरु के निकट नहीं है, दूर है। वह गुरुकुलवास में नहीं है । गुरु के कालगत हो जाने पर वह किसी अन्य गीतार्थ के पास चला जाए।' १२. साधु (मणुए) यहां मनुज शब्द साधु के अर्थ में प्रयुक्त है।' चूर्णिकार का अभिमत है कि जब तक मनुष्यत्व (मनुज-पर्याय) हो तब तक मुनि गुरुकुलवास में रहे।' वृत्तिकार का मानना है कि वही वास्तव में मनुा है जो आनी प्रतिज्ञा का यथार्थ निर्वाह करता है। प्रतिज्ञा का यथार्थ निर्वाह गुरु के निकट रहकर समाधि का पालन करने वाला ही कर सकता है।' १३. (अणोसिते णंतकरे ति णच्चा) - 'अणोसिते' का संस्कृत रूप है -अनुषितः । इसका अर्थ है-जो गुरुकुलवास में नहीं रहता, जो अव्यवस्थित है, स्वच्छन्दाचारी है। जो मुनि गुरुकुल वास में नहीं रहता वह भव-संसार का अन्त नहीं कर सकता । वृत्तिकार के अनुसार जो स्वच्छन्दविहारी होता है, वह समाधि या यथाप्रतिज्ञात कार्य का पार पाने वाला नहीं होता।' चूणिकार तथा वृत्तिकार ने यहां 'वालुंक वैद्य' के दृष्टान्त की सूचना दी है। वह इस प्रकार है राजघराने में एक वैद्य था। वह मर गया। राजा ने लोगों से पूछा-क्या उसके कोई पुत्र था या नहीं। लोगों ने कहाएक पुत्र है, परन्तु वह अशिक्षित है । राजा ने उसे बुलाकर कहा-जाओ, विद्या का अध्ययन करो। राजा की आज्ञा पाकर वह अन्यत्र गया और एक वैद्य के पास विद्या-अध्ययन करने लगा। एक बार एक व्यक्ति अपनी बकरी लेकर वैद्य के पास आया। उसके गले में कुछ फंस गया था। गला सूज गया । वैद्य ने पूछा-यह कहां चर रही थी ? उसने कहा-अमुक स्थान पर । वैद्य ने जान लिया कि इसके गले में 'ककड़ी' फंस गई है । वैद्य ने बकरी के गले पर एक कपड़ा बाधा और जोर से मरोड़ा, ककड़ी टूट गई वह गले से बाहर आकर गिर पड़ी। बकरी स्वस्थ हो गई। उस वैद्यपुत्र विद्यार्थी ने यह देखा । उसने जान लिया कि यही वैद्य-क्रिया है, वैद्यक रहस्य है । वह वहां से चला और राजा के पास आ गया । राजा ने कहा-'वैद्य-विद्या का अध्ययन कर लिया? उसने कहा-हां । राजा ने कहा-बहुत शीघ्रता से तुमने ज्ञान कर लिया । तुम मेधावी हो । राजा ने उसका सत्कार किया। एक बार रानी के गले में गांठ (गलगंड) उठी । उस वैद्यपुत्र को बुला भेजा । उसने गले की गांठ देखी। अपने शिक्षक वैद्य की बात उसे स्मृत हो आई। उसने रानी के गले में कपड़ा बांधा और जोर से मरोड़ा। रानी मर गई। तब राजा ने दूसरे वैद्यों से पूछा-क्या इसने शास्त्र के अनुसार चिकित्सा की है अथवा अशास्त्र के अनुसार ? वैद्यों ने कहा-अशास्त्र के अनुसार । राजा ने उसे शारीरिक दण्ड देकर विसर्जित किया, निकाल दिया। १. वृत्ति, पत्र २४६ : अवसानं-गुरोरन्तिके स्थान। २. चणि पृ० २०३ : अन्यत्रापि हि वसन् जो गुरुणिदेशं वहति स गुरुकुलवासमेव वसति, अनिर्देशवर्ती तु सन्निकृष्टोऽपि दूरस्थ एव, लोकेऽपि सिद्धा प्रत्यक्ष-परोक्षा सेवा। आह च-"कामक्रोधावनिजित्य, किमारण्यं करिष्यसि ? कालगतेऽपि गुरो असहायेन गीतार्थेन चान्यत्र गन्तव्यम् । ३. वृत्ति, पत्र २४६ : मनुजो मनुष्य साधुरित्यर्थः । ४. चूणि, पृ० २२६ : मनुष्य इति यावन्मनुष्यत्वमस्य तावदिच्छति वसितुं । ५. वत्ति, पत्र २४९ : स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति, तच्च सदा गुरोरन्तिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधि मनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथा । ६. (क) चूणि, पृ० २२६ : ण उषितः गुरुकुलेहि अनुषितः । (ख) वृत्ति, पत्र २४६ : गुरोरन्तिके 'अनुषितः'–अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी । ७. वृत्ति, पत्र २४६: समाधेः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्य वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसतंव्यः । ८. वृहत्कल्पमाष्य गाथा ३७६, पृ० १११, ११२ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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