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सूयगडो ।
प्रध्ययन : १४ टिप्पण ७-११
श्लोक ३: ७. अपुष्ट धर्म वाला (अपुट्ठधम्मे)
चूर्णिकार ने इसको 'अस्पृष्टधर्मा' मानकर इसका अर्थ-अगीतार्थ किया है।'
वृत्तिकार ने अपुष्टधर्मा का अर्थ-सूत्र और अर्थ से अनिष्पन्न-अगीतार्थ तथा ऐसा व्यक्ति जिसमें धर्म का परमार्थ सम्यक् रूप से परिणत नहीं हुआ है-किया है। इसी अध्ययन के तेरहवें श्लोक में भी इस शब्द का यही अर्थ किया है।' ८. चारित्र को (सिम)
चूणिकार ने इसका अर्थ चारित्र किया है।' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ 'वश्य' और वैकल्पिक अर्थ चारित्र माना है।'
देखें-सूयगडो ८।२० में 'वुसीमओ' का टिप्पण । ६. पाप धर्म वाले (पावधम्मा)
___ जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि वाले और अविरत हैं, वे पाप धर्म वाले होते हैं । चूर्णिकार ने ३६३ प्रावादुकों को इसके अन्तर्गत माना है।
वृत्तिकार के अनुसार सभी कुतीथिक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय से कलुषित होते हैं । वे सभी पापधर्मा कहलाते हैं। १०. हर लेते हैं (हरिसु)
पाखण्डी व्यक्ति अगीतार्थ मुनि के पास आकर उसको पथच्युत करने के लिए कहते हैं-'देखो, तुम्हारे जैन दर्शन में अग्निप्रज्वालन, विषापहार, चोटी कटाना आदि के विषय में कोई विश्वास नहीं है। अणिमा, लघिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियां भी नहीं हैं। तुम्हारा मत न राजा आदि विशिष्ट पुरुषों के द्वारा आश्रित ही है। तुम्हारे आगमों में जो अहिंसा का विधान है वह दुःसाध्य है, क्योंकि समूचा लोक जीवों से आकुल है, व्याप्त है । तुम्हारे मत में स्नान आदि का विधान भी नहीं है । उसमें शौच के लिए कोई स्थान नहीं है।'
स्वजन, बन्धु-बान्धव आकर उस अगीतार्थ मुनि को कहते हैं- 'आयुष्मन् ! तुम ही हमारे आधार हो, तुम्हारे बिना हमारा पोषण करने वाला दूसरा कोई नहीं है । तुम ही हमारे सर्वस्व हो। तुम्हारे बिना सारा संसार सूना है।'
इसी प्रकार स्त्रियां आकर उसे भोग का निमन्त्रण देती हैं और विविध प्रकार से उसे संयमच्युत करने का प्रयत्न करती हैं।
श्लोक ४: ११. गुरुकुलवास में (ओसाणं)
चूर्णिकार ने 'अवसान' के दो अर्थ किए हैं-जीवनपर्यन्त अथवा गुरुकुलवास ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ गुरुकुलवास १. चूणि पृ० २२८ : न स्पृष्टो येन धर्मः स भवति अपुट्ठधम्मे, अगीतार्थ इत्यर्थः । २ (क) वृत्ति, पत्र २४६ : सूत्रनिष्पन्नमगीतार्थम् 'अपुष्टधर्माण'–सम्यगपरिणतधर्मपरमार्थम् ।
(ख) सूयगडो १४.१३, वृत्ति पत्र २५३ : अपुदुधम्मे ... "सूत्रार्थानिष्पन्न: अपुष्टः-अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातः । ३ चूणि, पृ० २२८ : वुसिमं णाम चारित्रं । ४. वृत्ति, पत्र २४६ :..."वश्यम् ....."यदि वा 'बुसिम' त्ति चारित्रम् । ५ चूणि, पृ० २१८ : पापो येषां धर्म:-मिथ्यादर्शनं अविरतिश्च ते पापधर्माः भिक्षुकादीनि तिण्णि तिसट्ठाणि पावादियसताणि । ६. वृत्ति, पत्र २४६ : पापधर्माणो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायकलुषितान्तरात्मानः कुतीथिकाः । ७. वृत्ति, पत्र २४६ । ८ चूणि पृ० २२६ : ओसाणमित्यवसानं जीवितावसानमित्यर्थः, अथवा ओसाणमिति स्थानमेव गुरुपादमूले । उक्त हि-आसवपवमोसाणं
मल्लिस्स मणोरमे चेव ।
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