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________________ सूडो १ ४२. ज्ञातियों (णाइणं) जब स्त्री अपने पीहर ससुराल में चली जाती है तब ४३. श्लोक १४ : २०४ श्लोक १४ : 'सिर मुंडा हुआ है। मलिन और कुरूप हो रहा है। चूर्णिकार ने इस श्लोक का अर्थ विस्तार इस प्रकार किया है को मुनि के साथ एकान्त में बैठी देखकर उसके ज्ञातीजन कहते हैं - अहो ! हम इस स्त्री का भरण-पोषण करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं किन्तु यह मुनिवेष में इसका परिभोग करता है । वे मुनि से कहते हैं क्षपण ! तुम ही इस स्त्री का भरण-पोषण करो। तुम ही इसके स्वामी हो । यह तुम्हारे साथ दिनभर रहकर बातें करती रहती है । क्षपण ! देखो, स्त्री की रक्षा और भरण पोषण करने पर ही मनुष्य उसका स्वामी होता है, केवल बात बनाने से नहीं । तुम उसकी रक्षा करो, अन्यथा हम राजकुल में तुम्हारी शिकायत करेंगे। देखो, यह हमें छोड़कर तुम्हारे में आसक्त और गृद्ध हो रही है । यह हमें न आदर देती है और न हमारी आज्ञा ही मानती है । अब तुम ही इसके आदमी हो स्वामी हो । इसका भरण-पोषण करो । में रहती है तब तक माता, पिता, भाई आदि उसके ज्ञाती होते हैं । जब वह विवाहित होकर रान वाले उसके सगोत्र होते हैं, वहां वे ही ज्ञातीजन है।' वृत्तिकार ने इस श्लोक को इस प्रकार समझाया है अकेली स्त्री के साथ अनगार को देखकर ज्ञातिजनों के मन में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि ओह ! संयम जीवन बिताने वाला भी यह मुनि स्वी के शरीर को देखने में बस होकर अपनी मकिपात्रों को छोड़कर इस स्त्री के साथ निर्लज्जतापूर्वक बैठा हुआ है । नीतिकार कहते हैं अध्ययन ४ : टिप्पण ४२-४५ 'मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा || Jain Education International मुंह से दुर्गन्ध आ रही है । घर-घर में भिक्षा मांगकर यह अपना पेट भरता है । सारा शरीर मेल से इतना होने पर भी आश्चर्य है कि इसके मन में कामभोग की अभिलाषा उठ रही है ।' इस प्रकार सोचकर वे ज्ञातिजन कुपित होकर कहते हैं— 'मुने। इस स्त्री की रक्षा और भरण-पोषण के लिए तैयार रहो । अब तुम ही इसके स्वामी हो । देखो, इसका भरण-पोषण तो हम कर रहे हैं किन्तु तुम ही इसके स्वामी हो क्योंकि यह घर का सारा काम छोड़कर समूचे दिन तुम्हारे पास अकेली बैठी रहती है । श्लोक १५: ४४. समीप बैठा हुआ ( उदासीणं) इसके दो अर्थ है १. स्वाध्याय, ध्यान, प्रत्युप्रेक्षण आदि संयमक्रियाओं की उपेक्षा करने वाला । २. राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ ।" ४५. (अदु भोयह "होंति) लोग स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लग जाते हैं । वे यह सोचते हैं कि ये नाना प्रकार के भोजन इस स्त्री ने साधु के लिए ही तैयार किए हैं वह सदा मुनि को ऐसा भोजन देती है, इसीलिए यह मुनि प्रतिदिन यहां आता है अथवा साधु के १. चूर्णि पृ० १०७ : जातयो णाम कुलधरे वसंतीए पितृ-भ्रात्रादयः, अथवा स्त्री येषां दीयते त एव तस्याः सगोत्रा भवन्ति ज्ञातकाश्च । २. चूर्णि, पृ० १०८ । ३. वृत्ति, पत्र १०९ । ४. पूर्ण १० १०८ स्वाध्याय व्यान प्रत्युपेक्षादिसंयमकरणोदासीगं । ५. वृत्ति, पत्र १०६ : उदासीनमपि रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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