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सूयगडो १
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अध्ययन ४ : टिप्पण ४६-४8
आगमन से आकुल-व्याकुल होकर वह स्त्री श्वसुर आदि को जो भोजन देना है उसके बदले दूसरा ही देने लगती है या अधूरा परोस कर चली जाती है। कभी चावल परोस कर व्यंजन नहीं परोसती या केवल व्यंजन ही परोस कर रह जाती है। अति संभ्रम के कारण एक को देने की वस्तु दूसरे को दे देती है तथा करना कुछ होता है और करती कुछ है । एक गांव में एक बधू रहती थी । एक दिन नटमंडली वहां आई । नटों ने गांव के मध्य खेल प्रारंभ किया । वधू का मन नटों का खेल देखने के लिए आकुल हो गया । इतने में उसके श्वसुर और पति भोजन के लिए आ गए। उसने दोनों को भोजन के लिए बैठाया और जल्दी-जल्दी में तन्दुल के बदले राई को छोंक कर परोस दिया। श्वसुर ने देख लिया, किन्तु वह चुप बैठा रहा । पति ने उसे पकड़ कर पीटा। इसका चित्त दूसरे पुरुष में रमा रहता है - यह सोचकर उसे घर से निकाल दिया ।
श्लोक १६:
४६. समाधियोग से ( समाहिजोगेहि)
चूर्णिकार ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र के योग को समाधियोग माना है । वृत्तिकार ने समाधि का अर्थ धर्मध्यान और धर्मंध्यान के लिए या धर्मध्यानमय मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग माना है । चूर्णि का अर्थ स्वाभाविक है । ४७. परिचय (संघ)
स्त्री के घर बार-बार जाना, उसके साथ बातचीत करना, उसको कुछ देना लेना, उसको आसक्तदृष्टि से देखना आदि आदि संस्तव है, परिचय है। पूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों ने संस्तव का यही अर्थ किया है।
देखें - श्लोक १३ में प्रयुक्त 'संस्तव' शब्द का टिप्पण ।
श्लोक १७ :
४५. गृहस्थ और साधु दोनों का जीवन जीते हैं (मिस्सीभावं )
इसका अर्थ है - द्रव्यलिंग। ऐसे अनगार जो केवल वेष से मुनि होते हैं और भावना से गृहस्थ के समान, वे न एकान्ततः गृहस्थ होते हैं और न एकान्ततः साधु । वे गृहस्थ और साधु- दोनों का जीवन जीते हैं ।"
४. मार्ग (धुवमग्ग )
ध्रुव शब्द के तीन अर्थ हैं--संयम, वैराग्य और मोक्ष ।
१०६ सामुपकल्पितैरंसयमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमनिशमिहागच्छतीति यदि वा भोजनं यस्तै अर्धवः सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सवस्मिन् तस्येवात् ततस्ते स्त्रीदोषान भवेयुर्यथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति । निवर्शन मंत्र यथा— कयाचिद्वध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षण कगत चित्तया पतिश्वशुरयोर्मोजनार्थमुपविष्टयोस्तयोस्तण्डुला इतिकृत्वा राइकाः संस्कृत्य दत्ताः, तताऽसौश्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना क्रुद्धेव ताडिता, अन्यपुरुषगतचित्राय स्वगृहानिरिति ।
(ख) चूर्णि पृ० १०८ ।
१. (क) वृत्ति
२. पूर्ण, पृ० १०२ बाण-स-चरितोहि
३. वृत्ति, पत्र ११० : समाधियोगेभ्यः समाधिः - धर्मध्यानं तदर्थं तत्तप्रधाना वा योगा —— मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः ।
४. (क) चूर्णि, पृ० १०९ : संथवो नाम गमणा. ऽऽगमण दास सभ्प्रयोग-प्रेक्षणादिपरिचयः ।
(ख) वृति पत्र ११० संस्तवं तद्गमनालापदानसम्प्रेशणादिरूपं परिचयम् ।
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५. (क) चूर्ण, पृ० १०६ (ख) वृत्ति पत्र ११०
६. (क) पूर्णि, पृ० १०६ (ख) वृति पत्र ११०
मिश्रीभावो नाम द्रव्यलिङ्गमिति, न तु भावः अधवा पव्वज्जा: गिहवासो वि । मिश्रीभावं इति द्रव्यलिङ्गमासद्भावाद्भावतस्तु गृहस्थसमस्या इत्येवम्भूता मिश्रीभावम् ॥ मग्माम जो विगो वा ।
ध्रुवो मोक्षः संपमो या
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