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________________ सूयगडो १ २०६ प्रध्ययन ४ : टिप्पण ५०-५४ ५०. वाग्वीर होते है (वायावीरियं) वृत्तिकार के अनुसार द्रव्यलिंगी वाग्मात्र से यह प्ररूपणा करते हैं कि हम साधु हैं। वे सात गौरव और सुख-सुविधा में प्रतिबद्ध होकर शिथिल आचार वाले होते हैं अत: उनका अनुष्ठानगत कोई वीर्य नहीं होता। वे कहते हैं-'हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं वही मध्यम-मार्ग श्रेयस्कर है। इस मार्ग पर चलने से प्रव्रज्या का निर्वहन होता है।' यह वाग्वीर्य है, अनुष्ठानगत वीर्य नहीं है।' श्लोक १८: ५१. शुद्ध (सुद्धं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-वैराग्य-पूर्ण अथवा विशुद्ध ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-दोषरहित आत्मा, आत्मीय अनुष्ठान ।' ५२. यथार्थ को जाननेवाले (तथावेदा) चर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-कामतंत्रविद् और प्रत्यक्षज्ञानी।' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ इंगित और आकार को जानने में कुशल व्यक्ति तथा वैकल्पिक अर्थ सर्वज्ञ किया है। पाप करने वाला व्यक्ति अपने पाप को छुपाना चाहता है। दूसरे उसके पाप को न भी जान सकें किन्तु सर्वज्ञ से वह पाप छुपा नहीं रह सकता।' ५३. जान लेते हैं (जाणंति) कामतंत्र को जानने वाले मनुष्य व्यक्ति के आकार-विकारों से तथा नख, दशन आदि के घावों से जान लेते हैं कि यह मनुष्य अकृत्यकारी है, व्यभिचारी है। जैसे मल-मूत्र विसर्जन करने वाला अन्धा मनुष्य दूसरों के द्वारा देखा जाता हुआ भी सोचता है कि उसे कोई नहीं देखता, वैसे ही राग-द्वेष से अन्धा बना हुआ मनुष्य यही सोचता है कि उसके पाप को कोई नहीं जानता, देखता । किन्तु प्रत्यक्षज्ञानी से कुछ भी छिपा नहीं रहता । वह प्रगट या एकान्त में किए हुए सभी कार्यों को जान लेता है।' ५४. यह मायावी है, महाशठ है (माइल्ले महासढेऽयं) तथाविद्-यथार्थ को जानने वाले जान लेते हैं कि अमुक मायावी है और अमुक महासठ है । व्यक्ति का आचरण स्वयं उसका स्वरूप प्रगट कर देता है। उसके लिए दूसरे की साक्षी आवश्यक नहीं होती। नीतिकार कहते हैं१. वृत्ति, पत्र ११० : ते द्रव्यलिङ्गधारिणो वाङ्मात्रेणव वयं प्रव्रजिता इति ब्रुवते न तु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं वीर्यमस्तीति । ते वक्तारो भवन्ति यथाऽयमेवास्मदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान् तथा हि-अनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतम् ।। २. चूणि, पृ० १०६ : सुद्धमिति वेरग्गं अथवा शुद्धमिति शुद्धमात्मानम् । ३. वृत्ति, पत्र ११० : शुद्धम् अपगतदोषमात्मानमात्मीयानुष्ठानं वा। ४. चूणि, पृ० १०६ : तथा वेदयन्तीति तथावेदाः, कामतन्त्रविद् इत्यर्थः। ....."तथावेदाः प्रत्यक्षज्ञानिनः । ५. वृत्ति, पत्र ११० : तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः-इङ्गिताकारकुशला निपुणास्तद्विव इत्यर्थः यदिवा सर्वज्ञाः । एतदुक्तं भवति-यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति । ६. चूणि, पृ० १०६ : ते हि कामयमानं आकार-विकारर्जानन्ति........'नख-दशनच्छेदनर्वा सूच्यन्ते यथतेऽकृत्यकारिणः । यथा अधो उच्चाराद्य त्सजन दृश्यमानोऽपि परैर्मन्यते न मां कश्चित् पश्यति एवमसावपि राग-द्वेषान्धो जानीते न मां कश्चित् पश्यति ज्ञायते च परिव्रजन्ननजलभृतवत् । अथवा यो यथावस्थितो भावतः तं तथावेदाः प्रत्यक्षज्ञानिनं ते हि आवीकम्मं रहोकम्मं सव्वं जाणंति । ७. (क) वृत्ति, पत्र ११० : मायावी तहाशठश्चायमित्येवं तथाविदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहिप्रच्छन्नाकार्यकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम्-न य लोणं.............। (ख) चूणि, पृ० १०६। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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