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सूयगडो १
२०३
श्लोक १३:
३८. दासियों (के साथ) (दासीहि )
मुनि दासियों के सम्पर्क से भी बचे। दासियां घर के काम के क्लेश से उत्तप्त रहती हैं । सूत्रकार उनसे भी बचने का निर्देश देते हैं तो फिर स्वतंत्र और अत्यन्त सुखमय जीवन बिताने वाली स्त्रियों के संपर्क का तो कहना ही क्या ?" वृत्तिकार ने दासी से घट स्त्री अर्थात् पानी लाने वाली घटदानी का ग्रहण किया है और उसे अत्यन्त निन्दनीय माना है ।"
३६. बड़ी हों या कुमारी के साथ ( महतीहि वा कुमारीह)
चूर्णिकार ने इन दोनों शब्दों को भिन्न मानकर 'महती' का अर्थ वृद्धा और 'कुमारी' का अर्थ अवयस्क भद्रकन्या किया है।
४०. परिचय (संथवं )
संस्तव का अर्थ है - परिचय, घनिष्टता । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने स्त्रियों के साथ किए जाने वाले ध्वनिविकार युक्त आलाप-संलाप, हास्य, कन्दर्प क्रीड़ा आदि को संस्तव माना है । "
चूर्णिकार ने इस प्रसंग में एक श्लोक उद्धृत किया हैमातृभगिनीभर नरस्यासंभवो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥
'यह सच है कि माता, भगिनी आदि के साथ मनुष्य का कुसंबंध नहीं होता, फिर भी इन्द्रियां बजवान होती हैं । उनके समक्ष पंडित भी मूढ़ हो जाता है ।"
अध्ययन ४ : टिप्पण ३८-४१
वृत्तिकार ने संस्तव का अर्थ परिचय किया है। उनका कथन है यद्यपि पुत्र, पुत्रवधू आदि के प्रति मुनि का चित्त कलुषित नहीं होता फिर भी एकान्त या एक आसन पर उनके साथ रहने से देखने वाले दूसरे व्यक्तियों के मन में शंका उत्पन्न हो जाती है । अतः उस प्रकार की शंका उत्पन्न न हो, इसलिए मुनि को अपने स्वजनवर्गीय स्त्रियों के साथ घनिष्टता नहीं करनी चाहिए ।"
४१. श्लोक १३ :
प्रस्तुत श्लोक में स्त्रियों के साथ जाने या बैठने का निषेध किया गया है। प्रश्न होता है कि भिक्षु कौनसी स्त्रियों का वर्जन करे ? चूर्णिकार कहते हैं कि जब अशंकनीय स्त्रियों का भी वर्जन करना विहित है तब भलां शंकनीय स्त्रियों का तो कहना ही क्या ? जो भिक्षु की स्वजन स्त्रियां हैं, वे अशंकनीय होती हैं, किन्तु भिक्षु को उनका भी वर्जन करना चाहिए तब फिर दूसरी स्त्रियों का वर्जन तो स्वतः प्राप्त है । "
१. चूर्णि, पृ० १०७ : दासीग्रहणं व्यापारक्लेशोबतप्ताः दास्योऽपि वर्ज्याः, किमु स्वतंत्रा : स्वरसुखापेताः ।
२. वृत्ति, पत्र १०६ : दास्यो घटयोषितः सर्वापसदाः ।
३. चूर्ण, पृ० १०७ : महल्ली वयोऽतिक्रान्ताः वृद्धाः, कुमारी अप्राप्तवयसा मद्रकन्यकाः ।
४. वृत्ति पत्र १०१
संस्तयं परिचयं प्रत्यासत्तिरूपम् ।
५. गि, पृ० १०७ संचयी उत्लाव- समुल्लाद-हास्य कन्दर्प- क्रीडादि ।
६. चूर्ण, पृ० १०७ ।
८. चूर्ण, पृ० १०७ : एवं ज्ञात्वा स्त्रीसम्बद्धा वसधी व
किमु शङ्कनीया: ?
७.
वृत्ति, पत्र १०९ : यद्यपि तस्थानगारस्य तस्यां दुहितरि स्नुबादौ वा न चित्तान्ययात्वमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तच्छङ्कानिरासार्थं स्त्रीसम्पर्कः परिहर्तव्य इति ।
कतराः स्त्रियो वर्ज्या ?, उच्यते, असङ्कनीया अपि तावद वर्ज्याः
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