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________________ सूयगडो १ २०२ अध्ययन ४: टिप्पण ३४-३७ ३४. श्लोक ११: प्रस्तुत श्लोक में केवल स्त्रियों में धर्मकथा करने का वर्जन किया गया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस औत्सर्गिक नियम में अपवाद का कथन भी किया है। यदि कोई उपासिका किसी कारणवश उपाश्रय में आकर धर्म सुनने में असमर्थ हो या वृद्ध हो तो मुनि, अन्य सहायक साधु के अभाव में, अकेला ही उपासिका के घर जाए और दूसरी स्त्रियों के साथ बैठी हुई उस उपासिका को धर्म का उपदेश करे। वे स्त्रियां पुरुषों के साथ हों तो भी धर्म का उपदेश करे । वह वहां स्त्रियों के निन्द्य कर्म, विषयवासना के प्रति जुगुप्सा पैदा करने वाली तथा वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा करे।' कदाचित् कोई स्त्री आकर कहे-भिक्षो ! यदि आप घर आकर धर्मकथा करने में असमर्थ हैं तो भिक्षाचर्या या पानक लेने या अन्य किसी कारण से मेरे घर आएं। आपको वहां देख कर हम अपनी दृष्टि को तृप्त करेंगी। आपको देखे बिना हमारा हृदय सूना-सूना सा लगता है। श्लोक १२ ३५. विषयों की खोज करते हैं (उंछं) चूणिकार ने उंछंति पाठ मानकर उसका अर्थ 'गवेषणा करना' किया है।' वृत्तिकार ने उंछ का अर्थ 'जुगुप्सनीय', गर्दा किया है और प्रस्तुत प्रसंग में स्त्री से संबंध करना अथवा एकाकी स्त्री परिषद् में कथा करना जुगुप्सनीय माना है।' ३६. कुशील व्यक्तियों की (कुसीलाणं) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने कुशीलों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया हैपांच प्रकार के कुशील१. पार्श्वस्थ २. अबसन्न ३. कुशील ४. संसक्त ५. यथाछंद । अथवा नौ प्रकार के कुशील-पांच उपरोक्त तथा १. काथिक २. प्राश्निक ३. संप्रसारक ४. मामक । ३७. साथ (सहणं) चूर्णिकार के अनुसार यह देशी शब्द 'सह' के अर्थ में प्रयुक्त है। वृत्तिकार ने 'सह' और 'ण' को अलग-अलग मानकर 'ण' को वावयालंकार के रूप में स्वीकृत किया है।" १. वृत्ति, पत्र १०८ : एक: असहायः सन् कुलानि गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवों तन्निर्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो धर्ममाख्याति योऽसावपि न निर्ग्रन्थो न सम्यक् प्रवजितो निषिद्धाचरणसेवनादवश्यं तत्रापायसम्भवादिति, यदा पुनः काचित कुतश्चिन्निमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भवेत्तदाऽपरसहायसाध्वभावे एकाक्यपि गत्वा अपरस्त्री वन्दमध्यगताया: पुरुषसमन्विताया वा स्त्रीनिन्दाविषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति । २. चूणि, पृ० १०७ : आख्याति गत्वा गत्वा धर्म निष्केवलानां स्त्रीणां सहितानां पुंसाम् असावपि तावन्न निर्गन्थो भवति, किम यस्ताभिभिन्नकथां कथयति ? यदा पुनर्बद्धा सहागता पुरुष मिश्रा वा वन्देन वाऽऽगच्छेयुः तदा स्त्रीनिन्दा विषयजुगुप्सां अन्यतरां वा वैराग्यकथां कथयति । कदाचित् ब्रूयात-यदि वा गृहमागन्तुं न कथयसि तो भिक्खपाणगादिकारणेणं एज्जध, दृष्टिविश्रामतामपि तावत् त्वां दृष्ट्वा करिष्यामः, अपश्यन्त्या हि मे त्वां शून्यमेव हृदयं भवति । ३. चूणि, पृ० १०७ : जे वा एवंविधाणि इच्छन्ति (? उञ्छन्ति) गवसंतेत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १०८ : उंछन्ति जुगुप्सनीयं गां तदत्र स्त्रीसम्बन्धादिकं एकाकिस्त्रीधर्मकथनाविकं वा द्रष्टव्यम् । ५. (क) चूणि, पृ० १०७ : कुत्सितसीला कुसीला पासस्थादयः पंच णव वा। पंच ति-पासस्थ-ओसण्ण-कुसील-संसत्त-आधाछंदा । णव ति-एते य पंच, इमे च चत्तारि-काधिय-पासणिय-संपसारग-मामगा। (ख) वृत्ति, पत्र १०८। ६. चूणि, पृ० १०७ : सहणं ति देसीभासा सहेत्यर्थः। ७. वृत्ति, पत्र १०८ : सह......."णमिति वाक्यालङ्कारे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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