SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ अध्ययन ४: टिप्पण ३०-३३ ३०. स्त्री के साथ संवास न करे (संवासो ण कप्पई) चूणिकार का कथन है कि काठ से बनी जड़ स्त्री के साथ भी भिक्षु को रहना उचित नहीं है तो भला सचेतन स्त्री के साथ भिक्षु का संवास कैसे उचित हो सकता है ? संवास से चार दोष उत्पन्न होते हैं - (१) परिचय बढ़ता है। (२) आलाप-संलाप होता है। (३) अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं । (४) संयम से विमुख करने वाली कथाएं होने लगती हैं।' श्लोक ११: ३१. विष-बुझे कांटे के समान जानकर (विसलितं व कंटगं णच्चा) विष से लिप्त कांटा जब शरीर के किसी अवयव में लग जाता है तब वह अनर्थकारी होता है, किन्तु स्त्रियां तो स्मरण मात्र से अनर्थ उत्पन्न करने वाली होती हैं। कहा भी है विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि । विष और विषय में बहुत बड़ा अन्तर है । विष तो खाने पर ही मारता है किन्तु विषय स्मरण मात्र से मार डालते हैं। वारि (वरं) विस खइयं न विसयसुह इक्कसि विसिण मरंति । विसयामिस पुण घारिया नर णरएहि पडंति ।। विषय सुख को भोगने के बदले विष खाना अच्छा है। विष केवल एक बार ही मारता है । विषयों से मारे जाने वाले पुरुष नरकों में पड़ते हैं।' ३२. राग-द्वेष रहित (भिक्षु) (ओए) ओज का अर्थ है-अकेला, असहाय । चूणिकार ने इसका अर्थ-- राग-द्वेष रहित किया है।' ३३. जितेन्द्रिय भिक्षु (वसवत्ती) चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं १. घर जिसके वश में है। पहले गृहवास में रहे हुए होने के कारण वह जो-जो कहता है घर के सदस्य वैसा ही करते हैं। वह जो मांगता है, वे देते हैं। २. स्त्रियां जिसके वशवर्ती हैं। ३. इन्द्रियां जिसके वश में हैं। ४. जो गुरु के वश में है। वृत्तिकार ने 'वसवत्ती' का अर्थ-स्त्रियों का वशवर्ती किया है।' १. चूर्णि, पृ० १०६ : स्त्रीभिः सङ्गमो न कार्यः, काष्ठकर्मादिस्त्रीभिरपि तावत् संवासो न कल्पते, किमु सचेतनाभिः ? एगतो वासः संवासः, तदासणे वा संवसतो संयव-संलावादिदोसा असुभभावदर्शनं भिन्नकथा वा स्यात् । २. वृत्ति, पत्र १०८: विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्नः सन्ननथनापादयेत् स्त्रियस्तु स्मरणादपि, तदुक्तम् -विषस्य विषयाणां ३. वृत्ति, पत्र १०८। ४. वृत्ति, पत्र १०८ : ओजः एकः असहायः । ५. चूणि, पृ० १०७ : ओयो णाम रागद्दोसरहितो । ६. चूणि, पृ० १०७ : वसे वर्तत इति वशवर्तीति, पूर्वाध्पुषितत्वाद् यदुच्यते तत् कुर्वन्ति ददति वा, स्त्रियो वा येषां वशे वर्तन्ते, कि पुनः स्वरस्त्रीजनेषु, वश्येन्द्रियो वा यः स वशवर्ती, गुरूणां वा वशे वर्तते इति वशवर्ती । ७. वृत्ति, पत्र १०८ : स्त्रीणां वशवर्तः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy