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________________ सूयगडो १ २०० अध्ययन ४ : टिप्पण २५-२६ २५. वशवर्ती बना आज्ञापित करती हैं (आणवयंति) चूणिकार ने इसका अर्थ-झुकाना किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अकार्य करने के लिए प्रवर्तित करना तथा अपने वशवर्ती जानकर नौकर की भांति आज्ञा का पालन करवाना। श्लोक ८: २६. (सीहं जहा....."पासेणं) अकेला सिंह हजारों योद्धाओं के शिविर को नष्ट कर देता है। वह सदा अकेला रहता है। उसका कोई सहायक नहीं होता । वह अकेला घूमता है। उसका समूह नहीं होता। कहा भी है-'न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्वम्'- कभी किसी ने सिंह का टोला नहीं देखा। सिंह को जीवित पकड़ने के अनेक उपाय हैं। प्रस्तुत श्लोक में एक उपाय निर्दिष्ट है। चूर्णिकार ने इसको इस प्रकार स्पष्ट किया है-एक दुर्ग की गुफा में एक सिंह रहता था। उसके आतंक के कारण दुर्ग का मार्ग सूना हो गया था। कोई भी मनुष्य उस मार्ग पर आने से डरता था। एक बार सिंह को पकड़ने के उपाय जानने वाले विज्ञ पुरुषों ने एक बकरे को मारकर एक पिंजडे में डाल दिया। सिंह आया, मांसपिंड को देखकर पिंजरे में घुसा और उसे खाने लगा। लोगों ने उसे पकड़ लिया। श्लोक १०: २७. अनुताप करता है (अणुतप्पई) वह सोचता है "मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दह्य ऽहं, गतास्ते फलभोगिनः॥" मैंने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कठोर कर्म अजित किए हैं। अब मैं अकेला ही उन कर्मों का परिणाम भोग रहा हूं। परिणाम भोगने के समय वे कुटुम्बी कहीं भाग गए, वे मेरा हिस्सा नहीं बंटा रहे हैं। २८. विपाक (विवाग) चणिकार ने विपाक का अर्थ-स्त्री, पुत्र आदि के भरण-पोषण से होने वाला परिक्लेश किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अपने अनुष्ठान से फलित परिणाम किया है।' २६. राग-द्वेष रहित भिक्षु (दविए) इसका अर्थ है-राग-द्वेष रहित मुनि ।' वृत्तिकार ने इस अर्थ के साथ-साथ मुक्तिगमन योग्य मुनि को भी 'दविय' माना १. चूणि, पृ० १०६ :..........''आनम्यते । २. वृत्ति. पत्र १०७ : आज्ञापयन्ति प्रवर्तयन्ति स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्मकरवदाज्ञां कारयन्तीति । ३. चूणि, पृ० १०६ : येन प्रकारेण यया सहस्तिकोऽपि स्कन्धवारः सिंहेनैकेन भज्यते, क्वचिच्च पन्थाः सिंहेन दुर्गाश्रयेण निःसञ्चरः कृतः, स च तद्ग्रहगोपायविद्भिः पुरुषैश्छगलकं मारयित्वा तद्गोचरे निक्षिप्प पाशं च दद्यात्, तेन कुणिमकेन बध्यते, एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति । उक्तं च-न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्वम् । ४. वृत्ति, पत्र १०७ । ५. चूणि, पृ० १०६ : विवागो (वि) पाक: दारभरणादिपरिक्लेशः । ६. वृत्ति, पत्र १०८ : विपाकं स्वानुष्ठानस्य । ७. चूणि, पृ० १०६ : दविओ नाम राग-द्दोसरहितो। ८. वृत्ति, पत्र १०८ : द्रव्यभूते मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ। Jain Education Intemational For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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