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________________ सूयगडो. १६६ अध्ययन ४: टिप्पण २३-२४ णाह ! पिय ! कत ! सामिय ! दयित ! वसुला! होलगोल I गुललेहि ! जेणं जियामि तुब्भं पभवसि तं मे सरीरस्स ॥ -हे नाथ ! प्रिय ! कान्त ! स्वामिन् ! दयित ! वसुल ! होलगोल ! गुलल ! मैं आपके लिए ही जी रही हूं। आप ही मेरे शरीर के स्वामी हैं। वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शब्द आदि पांचों विषयों को स्वीकार किया है।' श्लोक ७: २३. मीठी बोलती है (मंजुलाई) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. मन में लीन होने वाली। २. मनोनुकूल । ३. काम-वासना पैदा करने वाली। वृत्तिकार ने भी कुछ भिन्नता के साथ इसके तीन अर्थ किए हैं -सुन्दर, विश्वास पैदा करने वाली, काम-वासना पैदा करने वाली। २४. संयम से विमुख करने वाली कथा के द्वारा (पिण्णकहाहि) संयम का भेद करने वाली कथा को 'भिन्नकथा' कहा जाता है। जैसे स्त्री भिक्षु के पास आकर कहती है-'क्या आपने विवाह करने के पश्चात् प्रव्रज्या ली हे या अविवाहित हैं ? यदि आप विवाहित हैं और पत्नी को छोड़कर प्रवजित हुए हैं तो वह आपकी स्त्री आपके बिना कैसे जीवन यापन कर रही है? यदि आप कुमार अवस्था में प्रवजित हुए हैं तो आपकी इस कुमारावस्था की प्रव्रज्या से क्या लाभ ? क्योंकि जो सन्तान उत्पन्न नहीं करता उसका जन्म निरर्थक है। देखें, आप किसी बाला के साथ विवाह कर लें अयया मेरे साथ कामभोग भोगें। आपको वैराग्य कैसे हुआ? क्या आप कामभोग की परम्परा के जानकार हैं ? क्या आप भुक्तभोगी हैं या कुमारक ?" वृतिकार ने स्त्री के साथ की जाने वाली एकान्त बातचीत और मैयुत संबंधी बातचीत को भिन्नकथा माना है।' १. (क) चूणि, पृ० १०५। (ख) बत्तिकार ने अगले श्लोक 'मणबंधणेहि णेगेहि' की व्याख्या में इसी प्रकार का एक श्लोक उद्धृत किया है। वह श्लोक इस प्रकार है णाह पिय कंत सामिय दइय जियाओ तुम मह पिओत्ति । जीए जीयामि अहं पहवसि तं मे सरीरस्स ॥ नाथ ! प्रिय ! कान्त ! स्वामिन् ! बयित ! जीवन से भी आप मुझे प्रिय हैं । आप जी रहे हैं, इसीलिए मैं जीवित हैं। 'आप ही मेरे शरीर के स्वामी हैं। (वृत्ति पत्र १०७) २. वृत्ति, पत्र १०७ : शब्दादीन् विषयान् । ३. चूणि, पृ० १०६ : मणसि लीयते मनोऽनुकुलं वा मञ्जुलम्, मदनीयं वा मञ्जुलम् । ४. वृत्ति, पत्र १०७ : मञ्जुलानि पेशलानि विश्रम्भजनकानि कामोत्कोचकानि वा । ५. चूणि, पृ० १०६ : भेदकरी कंधा मिणकधा । तं जहा-तु सि कि वतवीवाहो पब्वइतो ण व ? त्ति, वृत्तवीवाह इति चेत् कथं सा जीवति त्वया विनैवंविधरूपेण ? इति, कुमार इति चेद् अनपत्यस्य लोका न सन्ति, किं ते तरुणगस्स पग्वज्जाए ? दारिका वरिज्जासु, मया वा सह भुञ्ज भोए, स्यात् कथं वैराग्यं वा? ६. वृत्ति, पत्र १०७ भिन्नकथाभी' रहस्याऽऽलापैमथुनसम्बर्वचोभिः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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