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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'समय' है। नियुक्ति में यह नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां इसमें वर्ण्य विषय के आधार पर 'ससमयपरसमयपरूवणा'-(स्वसमय-परसमयप्ररूपणा) कहा गया है। चूणि और वृत्ति में इस अध्ययन का नाम 'समय' दिया गया है।' संभव है 'स्वसमय-परसमयप्ररूपणा' यह नाम बहुत दीर्घ हो जाता, अतः संक्षेप में इसे 'समय' की संज्ञा दे दी गई हो ।
समवाओ (२३/१) में भी 'समय' नाम ही निर्दिष्ट है। नियुक्तिकारने 'समय' के बारह प्रकार निर्दिष्ट किए हैं और चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या की है१. नाम समय-किसी का नाम 'समय' हो । २. स्थापना समय-किसी वस्तु में 'समय' की आरोपणा करना। ३. द्रव्य समय-सचित्त या अचित्त द्रव्य का स्वभाव-गुणधर्म । जैसे-जीव द्रव्य का उपयोग, धर्मास्तिकाय का गति
स्वभाव, अधर्मास्तिकाय का स्थिति स्वभाव, आकाशास्तिकाय का अवगाहन स्वभाव । अथवा-जिस द्रव्य का वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के माध्यम से जो स्वभाव अभिव्यक्त होता है, वह 'द्रव्य समय' कहलाता है । जैसे
(क) वर्ण से-भ्रमर काला है, कमल नीला है, कंबलशाटक लाल है, हल्दी पीली है, चंद्र श्वेत है। (ख) गंध से-चंदन सुगन्धयुक्त है, लहसुन दुर्गन्धयुक्त है। (ग) रस से-झूठ कटुक है, नीम तिक्त है, कपित्थ कसैला है, गुड़ मीठा है। (घ) स्पर्श से-पाषाण कर्कश है, भारी है, पक्षी की पांख हल्की है, बर्फ ठण्डा है, आग गरम है, घृत स्निग्ध है, राख
रूक्ष है । अथवा-जिस द्रव्य का जो उपयोग-काल है वह भी 'द्रव्य समय' कहलाता है, जैसेदूध के उष्ण-अनुष्ण, ठंडे या गर्म के आधार पर उसका उपयोग करना। वर्षाऋतु में लवण, शरदऋतु में जल, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घृत, ग्रीष्म
में गुड़-ये सारे अमृत-तुल्य होते है ।' ४. क्षेत्र समय-(क) आकाश का स्वभाव ।
(ख) ग्राम, नगर आदि का स्वभाव । (ग) देवकुरु आदि क्षेत्रों का स्वभाव-प्रभाव, जैसे-वहां के सभी प्राणी सुन्दर, सदा सुखी और वैर रहित
होते हैं। अथवा-क्षेत्र-खेत आदि को संवारने का समय ।
अथवा-ऊवं, अधो और तिर्यक्लोक का स्वभाव । ५. कालसमय-काल में होने वाला स्वभाव, जैसे-सुषमा आदि काल में द्रव्यों का होने वाला स्वभाव । १. नियुक्ति गाथा २२ : ससमय-परसमयपरूवणा य.....। २. (क) चणि पृ० १६ : तत्थ पढमज्झयणं समयोत्ति ।
(ख) वृत्ति पत्र : तत्राद्यमध्ययनं समयाख्यम् । ३. (क) नियुक्ति गाथा ३० । (ख) चूणि पृष्ठ १९,२० । (ग) वृति पत्र ११ । ४. चूणि पृ १६ : वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते ।
शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥
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