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सूयपडो।
प्रध्ययन १२ : टिप्पण २६-३३ २६.जिसमें प्रमत्त होकर (जंसी विसण्णा)
'जंसी' का अर्थ है-जिसमें । चूर्णिकार ने इस शब्द से अनेक अर्थों की कल्पना की है। जैसे—संसार में, सावध धर्म में, असमाधि में, कुमार्ग में, असत् मान्यता में अथवा इन्द्रियों के पांच विषयों में ।'
वृत्तिकार ने इसका एक ही अर्थ किया है-संसार में । 'विषण्ण' का अर्थ है-प्रमत्त या आसक्त ।
श्लोक १५: ३०. (ण कम्मुणा कम्म......."खति धीरा)
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच आश्रव हैं, कर्म के मूल स्रोत हैं । इनसे कर्म-पुद्गलों का बंध होता है, इसलिए ये कर्म-बंध के हेतु हैं । संक्षेप में इन्हें कर्म कहा जाता है । सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-ये पांच संवर हैं । इनसे कर्म का निरोध होता है । संक्षेप में इन्हें अकर्म कहा जाता है। अज्ञानी मनुष्य कर्म-बंध के हेतुओं में वर्तमान होता है और कर्म को क्षीण करने की बात सोचता है। इस अवस्था में सूत्रकार कहते हैं-कर्म से कर्म को क्षीण नहीं किया जा सकता। उसे अकर्म से क्षीण किया जा सकता है ।
देखें-८।३ का टिप्पण । ३१. मेधावी (मेधाविणो)
मेधा का अर्थ है-वह प्रज्ञा जो हित की प्राप्ति और अहित के परिहार से युक्त हो। इस प्रकार की मेधा से व्यक्ति मेधावी कहलाता है।
चूर्णिकार ने मेधावी का अर्थ मर्यादाशील किया है।' ३२. लोभ और मद से अतीत (लोभमया वतीता)
यहां दो शब्द हैं-लोभ से अतीत और मद से अतीत ।
लोभ से अतीत अर्थात् वीतराग ।' चार कषायों में सबसे अन्त में नष्ट होने वाला है-लोभ कषाय । दशवें गुणस्थान में जब उसका संपूर्ण नाश हो जाता है तब साधक ऊपर आरोहण करता हुआ वीतराग बन जाता है।
'मया' का संस्कृत रूप है-मदात् । हमने मय का अर्थ मद किया है।
'मय' शब्द से माया का अर्थ भी ग्रहण हो सकता है । छन्द की दृष्टि से 'मा' के स्थान में 'म' प्रयोग भी होता है।' चूर्णिकार ने 'माया' शब्द मान कर इसका अर्थ 'माया से अतीत' किया है।' ३३. संतोषी मनुष्य पाप नहीं करता (संतोसिणो णो पकरेंति पावं)
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में प्रयुक्त 'लोभ... वतीता' लोभ से अतीत और अत्र प्रयुक्त 'संतोषी'-दोनों समानार्थक हैं । क्या यह पुनरुक्त नहीं है ? चूर्णिकार समाधान देते हुए कहते हैं कि दोनों शब्द दो अर्थ-विशेष के द्योतक हैं, अतः वे समानार्थक नहीं हैं । इसलिए पुनरुक्त भी नहीं हैं । लोभातीत का अर्थ है-लोभ से शून्य वीतराग और संतोषी का १. चूणि, पृ० २१४ : यत्र संसारे यत्र वा सावध धर्मेऽसमाधौ कुमार्गे वा असत्समवसरणेषु, पंचसु वा विसएसु । २. वृत्ति, पत्र २२५ : यत्र-यस्मिन् संसारे । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : मेधा-प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविन:--हिताहितप्राप्तिपरिहाराभिज्ञाः । ४. चूर्णि, पृ० २१४ : मेराधाविणो मेधाविणो। ५. चूणि, पृ० २१४,२१५ : लोभमतीता लोमातीताः, वीतरागा इत्यर्थः । ६. वशवकालिक ९।११ : मयप्पमाया । ७. चूणि, पृ० २१५ : एवं मायामतीता मायातीता वा।
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