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सूयगडो ।
अध्ययन १२ : टिप्पण २६-२८ २६. दुर्मोक्ष (दुमोक्खं)
चूर्णिकार ने दुर्मोक्ष के दो हेतु प्रस्तुत किए हैं-मिथ्यात्व और सातगौरव । आस्तिक भी इन दो कारणों से संसार का पार नहीं पा सकते तो फिर नास्तिकों का तो कहना ही क्या ?'
भगवान् ऋषभ के साथ चार हजार व्यक्ति प्रवजित हुए थे। वे कालान्तर में सुविधावादी होकर श्रामण्यपालन में असमर्थ हो गए। भूख-प्यास को सहना कठिन प्रतीत होने लगा। वे कंद-मूल को खाने लगे और सचित्त जल पीने लगे । इस प्रकार वे षट् जीव-काय के हिंसक हो गए। ऐसे व्यक्तियों के लिए यह संसार दुर्मोक्ष है । वे कभी संसार का पार नहीं पा सकते। २७. विषय और अंगना (विसयंगणाहि)
ये दो शब्द हैं-विषय और अंगना। विषय का अर्थ है-पांच प्रकार के इन्द्रिय-विषय और अंगना का अर्थ हैस्त्री।
इस शब्द-समूह का दो प्रकार से अर्थ किया गया है--विषय-प्रधान स्त्रियां अथवा विषय और स्त्रियां । चूर्णिकार का अभिमत है कि पांच विषयों में स्पर्श का विषय गरीयान् है। स्पर्श में भी स्त्री का पहला स्थान है। स्त्रियों में पांचों विषय पाए जाते हैं।' २८. दोनों प्रमादों से (दुहतो)
इसका अर्थ है-दोनों प्रमादों से अर्थात् विषय और अंग ना से । ___ चूर्णिकार ने 'दुहतो' को स्वतंत्र और लोक का विशेषण मानकर उसके अनेक अर्थ किए हैं। द्विविध प्रमाद अनेक विषयों में हो सकता है, जैसे-वेश और स्त्री विषयक प्रमाद, आरंभ और परिग्रह द्वारा प्रमाद, राग और द्वेष द्वारा प्रमाद तथा अन्न और पानी विषयक प्रमाद ।
'दुहतो' को लोक का विशेषण मानने पर इसके दो अर्थ होते हैं-वस और स्थावरलोक अथवा इहलोक और परलोक।
वृत्तिकार ने 'दुहतो' को 'लोक' का विशेषण मान कर इसके दो अर्थ किए हैं१. आकाश आश्रित लोक और पृथ्वी आश्रित लोक । २. स्थावर लोक और जंगम लोक । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में 'दुहतो' को स्वतंत्र मानकर इसके दो अर्थ किए हैं१. लिंग मात्र प्रव्रज्या और स्त्री से ।
२. राग तथा द्वेष से। १. चूणि पृ० २१४ : दुर्मोक्षेति मिच्छत्त-सातगुरुत्वेन च ण तरंति अणुपालेत्तए जे वि अत्थिवादियो, किमंग पुण नास्तिकाः ? । २. (क) आवश्यक चूणि, पूर्वभाग पृ० १६२ : जेण जणो भिक्ख ण जाणति दाउं तो जे ते चत्तारि सहस्सा ते मिक्खं अलभता तेण
माणेण घरंपि ण वच्चंति भरहस्स य भएणं पच्छा वणमतिगता तावसा जाता, कंदमूलाणि खातिउमारद्धा। (ख) चूणि, पृष्ठ २१४ : जधा ताणि चत्तारि तावससहस्साणि सातागुरुवत्तणेण छक्कायवधगाई जाताई। ३. वृत्ति, पत्र २२५ : विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्गनास्ताभिः, यदि वा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिः। ४. चूणि, पृ० २१४ : सुगरीयान् स्पर्शः तेष्वप्यङ्गनाः, तासु हि पञ्च विषया विद्यन्ते । ५. चूणि, पृ० २१४ : दुहतो वि त्ति द्विविधेनापि प्रमादेन लोकं अणुसंचरंति । तं जधा-लिंग-वेस-पज्जाए अविरतीए य, अथवा आरम्भ
परिग्रहाभ्यां राग-द्वेषाभ्यां वा अन्न-पानाभ्यां वा त्रस-स्थावरलोगं वा इमं लोगं परलोगं वा । ६. वृत्ति, पत्र २२६ : 'द्विधाऽपि'-आकाशाश्रितं पृथिव्याधितं च लोकं... . . . . 'यदि वा-'द्विधाऽपि' इति लिङ्गमात्रप्रवज्ययाऽविरत्या
(च) रागद्वेषाभ्याम् ।
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