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अध्ययन : १२ टिप्पण २४-२५
सूयगडो१
५०७ इन चार गतियों में भलीभांति व्यवस्थित हैं।' इसका एक अर्थ आसक्त भी होता है। यहां यही अर्थ प्रस्तुत है।
श्लोक १३ :
२४. श्लोक १३:
प्रस्तुत श्लोक में जीवों का वर्गीकरण छह कायों में किया गया है, किन्तु ये काय षट्जीवनिकाय से भिन्न हैं। इस षट्जीवनिकाय में राक्षस, यमलौकिक, आसुर और गन्धर्व --ये चार देवकाय हैं। देवों का यह वर्गीकरण भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इस वर्गीकरण से भिन्न-काल का है । संभावना की जा सकती है कि द्वितीय वर्गीकरण, जो कि व्यवस्थित वर्गीकरण है, से पहले यह वर्गीकरण प्रचलित हो । इस प्रकार का एक वर्गीकरण उत्तराध्ययन में भी मिलता है। उसमें देवों की छह श्रेणियां बतलाई गई हैं-देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ।' आकाशगामी-इस पद में खेचर जीवों तथा पुढोसिता-इस पद में स्थलचर और जलचर-दोनों प्रकार के जीवों का निर्देश है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने राक्षस आदि का चार देवनिकायों में समावेश करने का प्रयत्न किया है।'
चूर्णिकार
बृत्तिकार राक्षस व्यन्तर
व्यन्तर यमलौकिक भवनपति
भवनपति' असुर भवनपति
भवनपति गंधर्व व्यन्तर
व्यन्तर
श्लोक १४:
२५. (जमाहु ..."अपारगं)
स्वयम्भुरमण समुद्र अपार जल-राशि का भंडार है। उसका पार न जलचर जीव पा सकते हैं और न स्थलचर जीव, केवल महद्धिक देव ही उसका पार पा सकते हैं। इसी प्रकार इस संसार का पार भी सम्यग्दर्शन के बिना नहीं पाया जा सकता। १. वृत्ति, पत्र २२५ : सम्यग्नारकतिर्यङनरामरभेदेन 'प्रगाढा:'--प्रकर्षण व्यवस्थिता इति । २. उत्तराध्ययन, १६/१६ । देवदाणवगंधब्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा।
बम्मयारि नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ ३. (क) चूणि, पृ० २१४ : केषाञ्चिद् भवनपत्यादिदेवाः शाश्वताः तेण रक्खसगहणम् । अथवा व्यन्तरा गृहीता राक्षसग्रहणात् ।
जमलोइयग्रहणाद् वैमानिकाः सूचिताः, जेणं जमदेवकाइया तिविधा नमग्नः (?) सर्वे ते जमस्स महारायस्स
आणा-उववात-वयणणिद्देसे चिट्ठति । असुरग्रहणेन भवनवासिनः सूचिताः । गान्धर्वा व्यन्तरा एव । (ख) वृत्ति, पत्र २२५ : ये केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तद्ग्रहणाच्च सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ
(म्बाम्ब) म्बादयस्तदुपलक्षणात् सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुराः'-सौधर्मादिवैमानिकाः च शब्दाज्यो
तिष्काः सूर्यादयः, तथा ये 'गान्धर्वाः' --विद्याधरा व्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थम् । ४. भगवई, ३/२५६ । ५. भगवई, ३/२५७-२६० । ६. (क) चूणि, पृ० २१४ : द्रव्योधः स्वयम्भुरमणः, स एवौधः सलिलः, ओघसलिलेन तुल्यं ओघसलिलम् । नास्य पारं जलचराः स्थल
चरा वा शक्नुवन्ति गन्तुं णऽण्णत्थ देवेण महड्डिएण इत्यतः अपारगः । (ख) वृत्ति, पत्र २२५ : यथा स्वम्भुरमणसलिलौधो न केनचिज्जलचरेण स्थलचरेण वा लवयितुं शक्यते, एवमयमपि संसारसागरः
सम्यग्दर्शनमन्तरेण लयितुं न शक्यत इति ।
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