________________
सूयगडो १
५०६
अध्ययन १२ टिप्पण १८-२३ :
,
कियां च सज्ञानवियोगनिल क्रियाविनयसंपद निरयंका कलेशसमूहशान्तये त्वया शिवायशालिखितेय पद्धतिः ॥
- सद् ज्ञान के बिना क्रिया निष्फल है और क्रियाविहीन ज्ञानसंपदा भी निष्फल है । आपने ( महावीर ने ) केवल ज्ञान या केवल क्रिया को क्लेश- समूह की शांति के लिए निरर्थक बता कर जगत् को कल्याणकारी मार्ग बताया है ।
इलोक १२ :
१८. चक्षु (च)
छंद की दृष्टि से यहां ह्रस्व का प्रयोग है। इसका अर्थ है कि तीर्थंकर लोक के लिए चक्षु के समान या प्रदीप के समान
होते हैं।'
१६. नायक ( जायगा )
नायक का अर्थ है-ले जाने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-देशक और प्रकर्षक' तथा वृत्तिकार ने 'प्रधान' किया है। तीर्थंकर प्रधान होते हैं, क्योंकि वे सदुपदेश देते हैं।'
२०. हितकर (हियं )
चूर्णिकार ने हित का अर्थ सुख किया है । वृत्तिकार ने हितकर उसे माना है जो सद्गति का प्रापक और अनर्थ का निवारक
Jain Education International
हो।"
२१. (तहा तहा सातयमाह लोए, जंसी पया.. ·)
लोक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । जैसे कषायलोक, विषयलोक, आस्रवलोक । यहां लोक के दो अर्थ किए गए हैं- आस्रवलोक और संसार । संप्रगाढ का अर्थ है आसक्ति । उस आसक्ति के कारण लोक शाश्वत होता है अर्थात् कर्म की संतति अव्यवच्छिन्न होती चली जाती है । तब तक इस आस्रव लोक या संसार- परिभ्रमण का अंत नहीं होता जब तक मार्गानुशासन के द्वारा आसक्ति का बंधन टूट नहीं जाता ।
२२. हे मानव ! (मानव)
चूर्णिकार ने 'मानव' शब्द से प्राणिमात्र का ग्रहण किया है। विकल्प में उसे मनुष्य का संबोधन भी माना है ।" यहां मानव का संबोधन इसलिए किया गया है कि वे ही उपदेश श्रवण के योग्य होते हैं ।"
२३. संप्रगाढ (संवगाढा )
चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संप्रसृत सम्यक्रूप से फैला हुआ । इसका अर्थ अवगाढ और विगाढ भी है।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- प्रकृष्टरूप से व्यवस्थित किया है । संसार में रहने वाले प्राणी नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवलोकस्य प्रदीपभूता इत्यर्थः ।
१.
०२१३
२. चूर्ण, पृ० २१३ : देशका नायकाः पगढगाः ।
३ वृत्ति, पत्र २२४ : नायका:- प्रधानाः "सदुपवेशदानतो नायकाः ।
४. णि १० २१३ हितं सुहं
५. वृति पत्र २२४हितं सव्यतित्रापरूमन निवारकं च ।
६. (क) भूमि, १० २१३ ।
(ख) वृति पत्र २२५
७. चूर्णि, पृ० २१३ : सर्व एव सत्त्वा मानवा इत्यपविश्यन्ते, मानवानां प्रजा माणवप्रजा । अथवा माणव ! इति है मानवाः ! | वृत्ति ०२२५ हे मानव माणामेव प्रायश उपदेशात्रमानवग्रहणम् ।
६. णि, पृ० २१३ : संप्रसृताः संप्रगाढा, ओगाढा विगाढा सम्प्रगाढा इत्यर्थः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org