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________________ सूडो १ xox अध्ययन १२ : टिप्पण १७ ज्ञान वाले होते हैं । वे सम्यक् तत्त्व को उपलब्ध नहीं होते, परिभाषा सहित निमित्तांगों का अध्ययन करने पर भी उनका निमित्त यथार्थ नहीं होता । कुछ लोग निमित्त का अध्ययन नहीं करते अथवा सम्यक् प्रकार से नहीं करते, उस स्थिति में उनका निमित्त यथार्थ नहीं होता, तब वे कहते है यह सब मिथ्या है।' किसी मनुष्य को जाने की शीघ्रता थी। वह जाने लगा तब किसी को छींक आ गई। वह शंकित मन से गया । उस समय कोई दूसरा शुभ शकुन हो गया। उससे छींक प्रतिहत हो गई । उसका काम सिद्ध हो गया, तब उसने सोचा- निमित्तशास्त्र झूठा है। मैं अपशकुन में चला था, फिर भी मेरा काम सिद्ध हो गया । कोई आदमी शुभ शकुन में चला, किन्तु अन्य अशुभ शकुन के द्वारा उसका शुभ शकुन प्रतिहत हो गया। उसका काम सिद्ध नहीं हुआ तब उसने सोचा- निमित्त शास्त्र झूठा है। मैं शुभ शकुन में चला था, फिर भी मेरा कार्य सिद्ध नहीं हुआ । इन दोनों प्रतिघातों (शुभ के द्वारा अशुभ का और अशुभ के द्वारा शुभ का) को नहीं जानने वाला मनुष्य कहता है कि निमित्तविद्या सारहीन है, इसलिए इसका परिमोक्ष कर देना चाहिए, इसे नहीं पढना चाहिए । निमित्त कहने वाले सब मिथ्यावादी हैं।' बुद्ध ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा 'अभी बारह वर्षों का दुष्काल होने वाला है, इसलिए तुम सब देशान्तर में चले जाओ ।' जब वे प्रस्थान करने लगे तब उन्हें रोक दिया और कहा - 'अब सुभिक्ष होने वाला है।' कारण की जिज्ञासा करने पर बुद्ध ने कहा-आज एक पुण्यवान् पुरुष पैदा हुआ है। उसके कारण सुभिक्ष होगा, दुर्भिक्ष का खतरा टल गया ।' इससे ज्ञात होता है कि निमित्त जिस घटना है । इसलिए उसकी गहराई को न समझने वाले उसके की सूचना देता है, परिस्थिति बदल जाने पर वह घटना अन्यथा भी हो जाती परिमोक्ष की बात कह देते हैं । मोक्ष के प्रति निरर्थक मान उसे छोड़ देते हैं । श्लोक ११ : १७. विद्या और आचरण के द्वारा (विश्वाचरणं) विद्या का अर्थ है - ज्ञान और चरण का अर्थ है-— चारित्र – क्रिया । - प्रस्तुत चरण - 'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं' में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति की बात कही है । सांख्य आदि केवल ज्ञान से मुक्ति का कमन करते हैं वे ज्ञानवादी हैं। अनवाद केवल क्रिया (शील या आचार) से मुक्ति का कथन करते हैं । इन दोनों एकान्तिक मतों का निरास करने के लिए सूत्रकार ने 'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं' का उल्लेख किया है। विकार ने इस तथ्य की पुष्टि में सिद्धसेन दिवाकर का एक श्लोक उद्धृत किया है Jain Education International २. पूर्ण पृ० २२२ १. पूणि, पृ० २२२ : अभिन्नवसपुब्विणो हेट्ठेण एतं अट्ठगं पि महानिमित्तं अघोतं गुणितुं वा अधित एमेव केचित् परिणामयंति, ते पति गिमिता धिया चयंति केति पुष बुद्धिर्ककयाद् विशुद्धमित्तिके हितो न्हं ठाणा अम्मतरं ठाणं परिहीणा अविसुद्ध खयोवसमा विपर्ययज्ञानं भवति, असम्यगुपलब्धिरित्यर्थः, (? सपरिभवमप्यङ्गमित्यर्थः ? ) सपरिभवमप्यङ्गमधीत्य अधीतेन निमित्तेण दुरधीतेन वितथं दृष्ट्वा निमित्तं वदति - निमित्तमेव णत्थि । शनि एवं गतः तस्य चान्यः शुभः शकुन उत्थितः येनास्तत्सुतं प्रतिहतम् स च तेन शकुनेनोपलक्षितः सन् मन्यते व्यलीकमेव निमित्तम्, येनाशकुनेऽपि सिद्धिर्माता इति एवं होम राहुतमन्येनाशोमनेनाप्रतिहतमनुष्यमान कार्यसिद्धिनिमित्तमेव नास्तीति मन्यते अपरिणामवन्त एवं बराकाश्वमपि णिमितमपरिणामयतः अहं विश्वापतिमोक्तमेव निमितविद्यापरिमोक्षम् एवं हि कर्तव्यम्, नाधीतव्यानि निमित्तशास्त्राणीत्यर्थः किञ्चित् तथा किञ्चिदन्यथेति कृत्वा मा भून्मृषावादप्रसङ्गः । ३. चूर्ण, पृ० २२२ : बुद्ध किल शिष्यानाहूयोक्तवान् — द्वादश वर्षाणि दुर्भिक्षं भविष्यति तेन देशान्तराणि गच्छत, ते प्रस्थितास्तेन प्रतिषिद्धाः, सुभिक्षमिदानीं भविष्यति, कथम् ? अर्थ वैकः सत्वः पुण्यवान् जातः तत्प्राधान्यात् सुभिक्षं भविष्यतीति । अतो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति कृत्वा ...मोक्षं च प्रति निरर्थकमित्यतस्तैरुत्सृष्टम् । ४. चूर्ण, पृ० २१३ : विज्जया चरणेण पमोक्खो भवति न तु यया संख्या ज्ञानेनैवैकेन, अज्ञानिकाश्च शीलेनैवकेन । ५. सिद्धसेन द्वात्रिंशिका १, कारिका २१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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