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________________ सूयगड १ १४. निरुद्धप्रज्ञ ( णिरुद्ध पण्णा ) ज्ञानावरण के उदय से जिनकी प्रज्ञा निरुद्ध होती है, वे निरुद्धप्रज्ञ कहलाते हैं । वे वास्तविकता को नहीं देख पाते । जो अनिरुद्धप्रज्ञ होते हैं वे प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अथवा परोक्षज्ञान --आगम के द्वारा जीव आदि पदार्थों को यथार्थ रूप में जानते हैं । अवधि, मनःपर्यंव और केवल —ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष और मति और श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष होते हैं । प्रत्यक्षज्ञानी जीव आदि पदार्थों को करतलामलकवत् साक्षात् देखते हैं । समस्त श्रुतज्ञानी उन्हें लक्षण द्वारा जान लेते हैं तथा अष्टांग महानिमित्त के पारगामी निमित्त के द्वारा जान लेते हैं । ** श्लोक ८ : १५. श्लोक 8 : प्रस्तुत श्लोक में अष्टांग निमित्त का निर्देश मिलता है । निमित्त के आठ अंग हैं- भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण और व्यंजन । यहां संवत्सर, स्वप्न, लक्षण, देह और उत्पात ये पांच साक्षात निर्दिष्ट हैं, शेष तीन इनके द्वारा सूचित हैं । संवत्सर, अन्तरिक्ष और ज्योतिष- ये तीनों एकार्थक हैं । यह अष्टांग निमित्त नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु से उद्धृत है । इसका अध्ययन कर भविष्य को जाना जा सकता है तथा भूत और वर्तमान को भी जाना जा सकता है । अष्टांगनिमित्तज्ञ व्यक्ति केवली की तरह तीनों काल की बात बता सकता है । " श्लोक 8 : चूर्णिकार ने अष्टांगनिमित्त के ग्रन्थमान का भी उल्लेख किया है। अंग को छोड़कर शेष सात विषयों का अनुष्टुभ छन्द के अनुपात से १२५० सूत्र हैं और उनकी परिभाषा गत टीका साढे बारह लाख श्लोक परिमाण की है। अंग के सूत्र का परिमाण साढे बारह हजार और वृत्ति का परिमाण साढे बारह लाख श्लोक हैं । वार्तिक अपरिमित है । इतने विशाल अष्टांगनिमित्त का अध्ययन करने पर भी सब समान ज्ञानी नहीं होते। उनमें षट्स्थानपतित (अनन्तभागहीन और अनन्तगुण अधिक) अन्तर होता है। चतुर्दशपूर्वी तथा आचारधर आदि में भी इतना ही अन्तर होता है । । (ख) वृत्ति, पत्र २२२ ३. (क) चूर्ण, पृ० २१२ Jain Education International १६. (केई णिमिता...) अभिन्नदनपूर्वी अष्टांगनिमित्त कोनी पूर्व में ही पढ लेते हैं फिर वह उनके गुणित और परिणत हो जाता है। इसलिए उनका निमित्त यथार्थं होता है । प्रत्येक ज्ञान में षट्स्थानपतित अन्तर होता है। कुछ लोग विशुद्ध नैमित्तिक पुरुषों की दृष्टि से हीन १. चूर्ण, पृ० २११ : निरुद्धा येषां प्रज्ञा ते भवन्ति निरुद्धपन्ना णाणावरणोदयेण, अथवा ते वराकाः कथं ज्ञास्यन्ति ये आगमज्ञान परीक्षा एवं ? जे पुण अनिरुद्धपन्ना ते प्रत्यक्षेण या आगमेन परोक्षेण जीवादी पदार्थान् पचादानन्ति तत्रावधिमनःपर्याय- केवलानि प्रत्यक्षम् मतिभूते परोक्षम् प्रत्यक्षज्ञानिनस्तायजीवादी पदार्थान् करतलामलक पयन्ति समताणणो विलक्षण असंगमहानिमित्तपारणा वि साधवो जयंति मिले। २. (क) पुष १० २१२ वरसर- निमित्तं मे एगडिया, (ख) वृत्ति, पत्र २२२, २२३ ॥ अध्ययन १२ टिप्पण १४-१६ श्लोक १० : संपत्सरे तिया अंतरिवेति वा जोतिसेति वा मिगं सुविणभावा व, लक्खणं सारीरं । एतेण चैव सेसयाएं पि सूइताएं, तं जधा - मोमं १ उप्पात २ सुमिणं ३ अंतरिवखं ४ अंगं ५ सरं ६ लक्खणं ७ वंजणं ८ णवधस्स पुव्वस्स ततियातो आयारवत्यूतो एतं णीणितं जाणंति अणागताई, अतिक्रान्त वर्तमानानि च केवलिवद् वाकरेति । अङ्गवर्णानां अनुष्टुभेन च्छन्दसा अर्द्धत्रयोदश शतानि (सूत्रम्), एवं तावदेव शतसहस्राणि परिभाषाटीका । अस्य तु अत्रयोदश सहस्राणि सूत्रम् तावदेव शतसहस्राणि वृत्ति, अपरिमितं वार्तिकम् एवं निमित मध्यधीत्य न स तुल्याः परस्वरतः पद्स्याम्यतिताः, चोट्सपुष्यो वि पहाणपडिता एवं आवारपरायी वि रणदिया। " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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