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सूयगडो १
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प्रध्ययन १२ : टिप्पण १३
२. हमारा एक पक्ष यह है कि चार प्रकार के कर्म-अविज्ञोपचित, परिज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वप्नान्तिक-इहभव वेद्य होते हैं । हमारा दूसरा पक्ष यह है कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका बेदन इहभव और परभव दोनों में होता है।'
इहभब वेद्य और जन्मान्तर वेद्य कर्मों के आधार पर बौद्ध एकपाक्षिक भी है और द्विपाक्षिक भी है। उसकी मान्यता है कि क्रियाचित्त से जो कर्म किया जाता है, उससे कर्मों का चय नहीं होता, बंध नहीं होता । वह इहभव वेद्य कर्म है। कुशलचित्त और अकुशलचित्त से जो कर्म किया जाता है, उससे कर्मों का चय होता है, बंध होता है। उसका परिणाम दोनों भवों-इहभव और परभव में भुगतना पड़ता है । विपाक या फलदान के आधार पर वे चार प्रकार के कर्म मानते हैं
१. दिट्ठधम्मवेदनीय- इसी शरीर में भुगते जाने वाले कर्म । २. उपपज्जवेदनीय-परभव में भुगते जाने वाले कर्म । ३. अपरापरियवेदनीय-जन्म-जन्मान्तर में भुगते जाने वाले कर्म ।
४. आहोसिकम्म-अविपाकी कर्म । वह कर्म जिसका कोई फल नहीं होता।'
चूणि और वृत्तिगत व्याख्या के आधार पर एकपक्ष और द्विपक्ष वाली मान्यता मुख्यत: बौद्धों की रही है । बौद्ध ग्रंथ इसके साक्षी हैं। षट् आयतन
कर्म के छह आयतन या आश्रवद्वार ये हैं- १. श्रोत्र आयतन २. चक्षु आयतन ३. घ्राण आयतन ४. रसन आयतन ५. स्पर्शन आयतन ६. मन: आयतन । ये छह कर्म के उपादान कारण है।'
चूर्णिकार ने केवल यही एक अर्थ किया है । वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है। उनके अनुसार यह छल का आयतन-स्थान है। जैसे किसी ने कहा - 'नवकम्बलो देवदत्तः ।' सुननेवाला इसके दो अर्थ निकाल सकता है । 'नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं-नया और नौ (संख्या) । यह 'छल' है।"
श्लोक ७:
१३. श्लोक ७:
प्रस्तुत श्लोक की तुलना संयुक्तनिकाय के इस अंश से होती है"---
'न वाता वायंति, न नज्जो संदंति, न गम्मिणियो विजायंति, न चंदिम-सूरिया उदेति वा अति वा ।' १. वृत्ति, पत्र २२० : अस्मदभ्युपगतं दर्शन मेकः पक्षोऽस्येति एकपक्षमप्रतिपक्षतयकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायितया निष्प्रतिबाधं पूर्वापरा
विरुद्धमित्यर्थः, .... द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं -सप्रतिपक्षमनैकान्तिकं पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायितया विरोधिवचनमित्यर्थः,..... यदिवेदमस्मवीयं दर्शनं द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं--कर्मबन्धनिर्जरणं प्रतिपक्षद्वयसमाश्रयणात्, तत्समाश्रयणं चेहामुत्र च वेदनां चौरपारदारिकादीनामिव, ते हि करचरणनासिकादिच्छेदादिकामिहैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडम्बनामनुभवन्ति अमुत्र च नरकादौ तत्फलभूतां वेदनां समनुभवन्तीति, एवमन्यदपि कर्मोभयवेद्यमभ्युपगम्यते, तच्चेदं 'प्राणी प्राणिज्ञान' मित्यादि पूर्ववत्, तथैकमेकः पक्षोऽस्येत्येकपक्षं इहैव
जन्मनि तस्य वेद्यत्वात्, तच्चेदम् ---अविज्ञोपचितं परिज्ञोपचितमीर्यापथं स्वप्नान्तिकं चेति । २. अभिधम्मत्यसंगहो ५११६ : पाकदान परियायेन-दिठुधम्मवेदनीयं उपपज्जवेदनीय अपरापरियवेदनीयं अहोसिकम्मञ्चेति
नवनीत टीका:दिट्ठधम्मे इमस्मि चेव अत्तभावे वेदनीयं फलदायक । यस्य विपाको उपपज्जित्वा वेदनीयो, तं उपपज्जवेदनोग, समनन्तरमवतो अपरापरेसु भवेसु विपच्चमानं अपरापरियवेवनीगं, यस्स विपाको न
होति, तं आहोसिकम्मं नाम । ३. चूणि, पृ० २१०: षडायतनमिति षड् आयतनानि यस्य तदिदं आथवद्वारमित्यर्थः, तद्यथा-श्रोत्रायतनं यावन्मनआयतनम् । ४. वृत्ति, पन २२०:छलायतनं-छलं नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकम् । ५. संयुक्तनिकाय, II, पृ०४१४ ।
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