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सूयगडो १
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अध्ययन १२: टिप्पण ११-१२ वृत्तिकार ने उपसंख्या का अर्थ-वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानना—किया है । अनुपसंख्या का अर्थ है-अपरिज्ञान ।' ११. कर्म से बद्ध नहीं होता (लवावसक्की)
लव का अर्थ है-कर्म । अवष्वस्क का अर्थ है-दूर रहना अर्थात् कर्म से दूर रहना ।'
चूर्णिकार ने लव के दो अर्थ किए हैं-कर्म तथा काल । क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष,मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि काल के अनेक भेद हैं।
अक्रियावादी मानते हैं कि आत्मा अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी कर्म से बद्ध नहीं होता।
'लव' शब्द 'लू' धातु से बना है । लव का एक अर्थ है-विनाश । कर्म विनाश का मूल कारण है, अत: 'लव' का अर्थ 'कर्म' किया गया है।
श्लोक ५: १२. श्लोक ५:
चूर्णिकार के अनुसार अक्रियावादी (लोकायतिक, बौद्ध, सांख्य) दर्शन दो प्रकार के धर्म (कर्म) का प्रतिपादन करते हैंएकपाक्षिक और द्विपाक्षिक । एकपाक्षिक कर्म का अभिप्राय यह है कि उसमें क्रियामात्र होती है, कर्म का चय नहीं होता, बंध नही होता। वह कर्म इसी भव में भोग लिया जाता है । एकपाक्षिक कर्म के चार प्रकार हैं-अविज्ञानोपचित, परिज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वप्नान्तिक ।
द्विपाक्षिक कर्म वह होता है जिसमें चार का योग होता है-(१) सत्त्व (२) सत्त्वसंज्ञा (३) मारने का संकल्प (४) प्राणवियोजन । इससे होने वाला कर्म-बंध द्विपाक्षिक होता है- इस जन्म में भी भुगता जाता है और परजन्म में भी भुगता जाता है। जैसे-चोर यहां चोरी करते हैं । इसी भव में उन्हें कारावास, बन्धन, वध आदि दंड भुगतने पड़ते हैं। शेष परिणाम उन्हें अगले जन्म-नरक आदि में भुगतने पड़ते हैं।' एकपाक्षिक
वृत्तिकार ने अक्रियावादियों के एकपाक्षिक तथा द्विपाक्षिक कर्म को विभिन्न प्रकार से व्याख्यात किया है__वे (अक्रियावादी) कहते हैं-हमारा दर्शन एकपाक्षिक है, उसका कोई प्रतिपक्ष नहीं है । वह एकान्तिक और पूर्वापर-अविरुद्ध
द्विपाक्षिक
वे अक्रियावादी कहते हैं-हमारे दर्शन से भिन्न दर्शन द्विपाक्षिक हैं, क्योंकि उनका प्रतिपक्ष प्राप्त होता है, वे अनैकान्तिक और पूर्वापरविरुद्ध वचनों के प्रतिपादक हैं।
हम द्विपाक्षिक दो दृष्टियों से हैं--
१. हम कर्म बन्ध और कर्म-निर्जरण-इन दो पक्षों को स्वीकृति देते हैं। १वृत्ति, पत्र २१८ : संख्यानं संख्या-परिच्छेदः उप–सामीप्येन संख्या उपसंख्या---सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानं, नोपसंख्याऽनुपसंख्या
तयाऽनुपसंख्यया-अपरिज्ञानेन । २. वृत्ति, पत्र २१८ : लवं-कर्म तस्मादपशङ्कितुम्-अपसतुं शोलं येषां ते लवापशङ्किनः। ३. चूणि, पृ० २०६ : लवमिति कर्म, वयं हि लवात्--कर्मबन्धात् अवसक्कामो किट्टामो अवसराम इत्यर्थः, संववहारबंधेणावि ण बज्झामो,
किं पुण णिच्छयतो ? .... अथवा अवसक्कि त्ति क्षण-लव-मुहूर्त-अहोरात्र-पक्ष-मास-र्वयन-संवत्सरादिलक्षणे काले
सर्वत्र कर्मबन्धादवशक्नुमः । लवः कालः, वर्तमानादवसक्कामो। ४. चूणि पृ० २१० : ते पुण अक्किरियावाविणो दुविधं धम्मं पण्णवेंति, तं जधा-इमं दुपक्खं इमं एगपक्खं तावत् अविज्ञानोपचितं परिजो
पचितं ईर्यापथं स्वप्नान्तिकं च चतुर्विधं कर्म चयं न गच्छति, एतद्धि एकपाक्षिकमेव कर्म भवति, का तहि भावना ? क्रियामात्रमेव, न तु चयोऽस्ति, बन्धं प्रतीत्याविकल्प इत्यर्थः एगपक्खियं । दुपक्खियं तु यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च सञ्चित्य जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपातः, एतद् इह च परत्र चानुभूयते इत्यतो दुपक्खिक, यथा चौरादयः इह पुष्फमात्रमनुभय शेषं नरकादिष्वनुभवन्ति ।
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