SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ५१० अर्थ है जो नियह करने में उत्कृष्ट हैं, वे अयीतराग होने पर भी वीतराग है।' वृत्तिकार ने इस पुनरुक्त प्रश्न का समाधान दो प्रकार से दिया है १. लोभ से अतीत - इसमें लोभ का प्रतिषेधांश दिखाया है। तथा 'संतोषी' इसके द्वारा लोभ की अल्प विद्यमानता अर्थात् लोभ का विधि अंश प्रदर्शित किया गया है । २. लोभ से अतीत- अर्थात् समस्त लोभ का अभाव । संतोषी अर्थात् वीतराग न होने पर भी उत्कट लोभ से रहित । 'णो पकरेंति पावं' - संतोषी पाप नहीं करते'- इसका तात्पर्य है कि वे लोभ को प्रतनु बना देते हैं इसलिए उनके लोभ से होने वाले कर्मबंध तद्भव वेदनीय हो जाता है।' वे दीर्घकालीन पाप कर्म का बंध नहीं करते तथा लोभ के वशीभूत होकर पापकारी आचरण नहीं करते । इलोक १६: ३४. (ते तीतउप्पण्ण तहागताई ) अनिरुद्ध प्रज्ञा वाले पुरुष इस प्राणिलोक के पूर्वजन्म संबंधी तथा वर्तमान और भविष्य संबंधी सुख-दुःख को यथार्थरूप में जानते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी (केवलज्ञानी) वा चतुर्दश पूर्वधर (परोक्षज्ञानी) होने के कारण उनका ज्ञान अवितय होता है। वे की तरह वितथ बात नहीं जानते, नहीं कहते । अज्ञानी विव-जानी पूर्णिकार और कृतिकार ने यहां भगवती सूत्र का पाठ उधृत कर स्पष्ट किया है कि माथी, मिध्यादृष्टि अनगार यथार्थ को नहीं जानता । वह अयथार्थ जानता है । उसका पूरा विवरण इस प्रकार है— अध्ययन १२ : टिप्पण ३४ मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार वीसन्धि, मंत्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि से युक्त है। यह वाणारी नगरी में अपनी शक्ति का संप्रेषण कर क्या राजगृह नगर के रूपों को जानता देखता है ? प्रश्न का उत्तर मिला- हां, जानता-देखता है । प्रतिप्रश्न हुआ - भंते ! क्या वह तथाभाव को जानता देखता है या अन्यथाभाव को जानता देखता है ? उत्तर मिला- गौतम । यह तथा-भाव को नहीं जानता- देखता, किन्तु अन्यथाभाव को जानता देखता है । फिर पूछा- भंते ! इसका क्या कारण है ? उत्तर मिला - गौतम ! उसको ऐसा होता है, मैं राजगृह नगरी में अपनी शक्ति का संप्रेषण कर वाणारसी नगरी के रूपों को जानता देखता हूं। यह उसका दर्शन विपर्यास है। इसलिए यह कहा जाता है—वह तथाभाव को नहीं जानता- देखता, अन्यथाभाव को जानतादेखता है ।" ४. (क) चूणि, पृ० २१५ (ख) वृत्ति, पत्र २२६ । १. घृणि, पृ० २१५: स्याद् बुद्धिः - अलोभाः सन्तोषिणश्च एकार्थमिति कृत्वा तेन पुनरुक्तम्, उच्यते, अर्थविशेषान्न पुनरुक्तम्, लोभातीता इति अतिकान्तलोमा दौतरागा संतोष इति निग्रहपरमा वीतरागा अपि वीतरागाः । २. वृत्ति, पत्र २२६ : न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो ( विधेयाsत्र यतो ) लोमातीतत्वेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, सन्तोषिण इत्यनेन च विध्वंश इति यदि वा सोमालीतग्रहणेन समस्तलोमाभाव: संतोषिष इत्यनेन तु सत्यप्यवीतरागत्वे मोरकटलोचा इति लोभाभावं दर्शयन्तपरकषायेभ्यो लोभस्य प्राधान्यमाह । प. पूणि, पृ० २१५ णो पकरिति पायं संतोसियो पययं पकरेति तमववेदभिन्नमेव अथवा यत एव सोभाईया अत एव संतोसिणः । ५. भगवती, ३।२२२-२२४ । अणगारे गं मंते ! भाविया माथी मिट्टी पीरियडीए वैलिडीए दिगनाणसडीए वागारति नगर समोहए, समोहणिता रामगि नगरे रुवाई जागइ-पास ? Jain Education International से भंते! कि तहाभावं जाणइ-पासह ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ? गोयमा ! नो तहाभावं जाणइ पासह, अण्णहाभावं जानपासइ । मे केण े णं भंते ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ-पासइ ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ? गोपमा । तस्स णं एवं एवं अहं रायगिहे नगरे सोहर, समोहजिला बाणारसीए नगरीए ब्वाई आगामिपासामि । 'सेस दंसण-विवच्चासे' मन्त्रइ । से तेणटुण गोयमा ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण पासइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy