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सूयगडो १
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अध्ययन १२: टिप्पण ३५-४० ३५. वे दूसरों के नेता हैं (णेतारो अण्णेसि)
वे केवलज्ञानी या चतुर्दश पूर्वविद् पुरुष संसार का पार पाने वाले भव्य पुरुषों को मोक्ष की ओर ले जाते हैं या उन्हें सदुपदेश देते हैं । ३६. स्वयंबुद्ध (बुद्धा)
इसके दो अर्थ हैं-स्वयंबुद्ध या बुद्धबोधित । चूर्णिकार ने गणधर आदि को बुद्धबोधित के अन्तर्गत माना है, जब कि वृत्तिकार ने गणधर को स्वयंबुद्ध माना है। वास्तव में गणधर बुद्धबोधित होते हैं, स्वयंबुद्ध नहीं होते। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों का इतिवृत्त इसका साक्षी है। ३७. दूसरों के द्वारा संचालित नहीं हैं (अणण्णणेया)
वे अनन्य नेता होते हैं अर्थात् उनका कोई दूसरा नेता नहीं होता, कोई उन्हें चलाने वाला नहीं होता । वे स्वयंबुद्ध होते हैं, अतः कोई दूसरा उन्हे तत्त्वबोध नहीं कराता । हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के विषय में कोई उनको ज्ञान नहीं देता। वे स्वयं इस विवेक से परिपूर्ण होते हैं ।
चूर्णिकार ने इसकी पुष्टि में एक गद्यांश उद्धृत किया है-'इत्ताव ताव समणेण वा माहणेण वा धम्मे अक्खाते, णत्थेतो उत्तरीए धम्मे अक्खाते' ( ) श्रमण, माहन (महावीर) ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, उससे बढ़कर कोई धर्म प्रतिपादित नहीं है।' इसलिए वे महावीर अनन्य नेता हैं-उनका कोई दूसरा नेता नहीं है।' ३८. अन्त करने वाले (अंतकडा)
अंतकड या अंतकर--दोनों एकार्थक हैं । 'ड' और 'र' का एकत्व माना गया है। इसका अर्थ है-भव (संसार) का अन्त करने वाले अथवा भव के उपादानभूत कर्मों का अन्त करने वाले।' अंतकड का दूसरा संस्कृत रूप कृत+अन्त भी होता है।
श्लोक १७:
३९. जिससे सभी जीव भय खाते हैं उस हिंसा से (भूताभिसंकाए)
भूत का अर्थ है - त्रस-स्थावर प्राणी । वे जिससे डरते हैं, उसे भूताभिशंका-हिंसा कहा जाता है।' ४०. उद्विग्न होने के कारण (दुगुंछमाणा)
इसका संस्कृत रूप है-जुगुप्समानाः । 'गुपङ्-गोपनकुत्सनयोः' इस धातु से निन्दा अर्थ में 'सन्' प्रत्यय करने पर 'जुगुप्सते' रूप निष्पन्न होता है । इसका अर्थ है-निन्दा करना ।
१. (क) वृत्ति, पत्र २२६ : ते चातीतानागतवर्तमानज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा परोक्षज्ञानिनः 'अन्येषां'-संसारोत्तितोष॑णां
मव्यानां मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति । (ख) चूणि, पृ. २१५। २. (क) चूणि, पृ० २१५ : बुद्धा स्वयंबुद्धा बुद्धबोधिता वा गणधराधाः ।
(ख) वृत्ति, पत्र २२६ : 'बुद्धाः'- स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधरादयः । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : न च ते स्वयम्बुद्धत्वादन्येन नीयन्ते-तत्त्वावबोध कार्य (धवन्त: क्रिय) 'न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं
प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । ४. चूणि, पृ० २१५। ५. (क) चूणि, पृ० २१५ : अन्तं कुर्वन्तीति अन्तकराः, भवान्तं कर्मान्तं वा।
(ख) वृत्ति, पत्र २२६ : ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतस्य वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति । ६. चूणि, पृ० २१५ : भूताणि तस-यावराणि ताणि यतोऽभिसंकति सा मृताभिसंका भवति, हिंसेत्यर्थः ।
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